ऐसा मरना जो मरै, बहुरी मरण नहीं होय


चित्र - परमहंस राममंगलदास जी महाराज


कबीर जी ने कहा है-
मरना मरना सब कहैं, मरना लखै न कोय
ऐसा मरना जो मरै, बहुरी मरण नहीं होय


हम लोग माँ की कोख से जन्म लेकर इस संसार में आते हैं। फिर अधिकतर लोग बचपन, जवानी, बुढ़ापे का सफर तय करते हुए अनेकों कर्म करते हैं, कुछ जानबूझ कर और कुछ नादानी में मोह, क्रोध, अहंकार की वृत्ति में बहकर किये हुए कर्मों से हम दूसरों को और अंततः अपने आप को हानि पहुंचाते हैं, लोभ और काम की वृत्ति से किये गए कर्म से हमें कानून और सरकार से दंड मिलता है, मत्सर (द्वेष/ईर्ष्या) से हम केवल और केवल अपने -आप को ही हानि पहुंचाते है परमार्थ और परस्वार्थ के कर्मों से हम पुण्य कमाते हैं और इनसे हमारे जीवन में सुख, शांति और समृद्धि भी आती है। फिर मृत्यु के पश्चात् हम अर्थी चढ़कर इस संसार से विदा ले लेते हैं। पिछले जन्म के कर्मों के हिसाब से हमें नया जन्म मिलता और फिर ऐसी ही चक्र चलता रहता है हर जन्म में एक पाव सुख और तीन पाव दुःख  मिलने के चक्र चलता ही रहेगा, चलता ही रहेगा।


हाँ एक सत्य ये भी है कि पीछे जन्म के कर्मों आधार पर हम धनी अथवा निर्धन परिवार में जन्म लेते है, हमारे शरीर में सारे अंग होते हैं या नहीं होते हैं, हमारे अंग ठीक से काम करते हैं या नहीं करते। जीवन में स्वस्थ रहते हैं या बीमारीओं से ग्रसित हमें अच्छा जीवन साथी मिलता है या नहीं मिलता, संतान का सुख मिलता है या नहीं मिलता या संतान से दुःख भी मिलता है इत्यादि। हममें से अधिकतर आत्माओं का, अर्थात लोगों के जीवन की यही सच्चाई है।लेकिन सबकी नहीं। कुछ लोग इस चक्र से बाहर निकलने के इच्छुक भी होते हैं उन आत्माओं को ऐसा लगता है की बस आना - जाना बहुत हो गयाअब जहाँ से आए थे वहीँ वापस होना ही अच्छा है।


तभी संभवतः महाराज जी यहाँ पर कबीरदास जी के इस दोहे के निमित्त भक्तों को समझा रहे हैं कि मरना -मरना तो सब कहते हैं लेकिन मरने का रहस्य तो बहुतों को दिखाई नहीं देता (समझ में नहीं आता) मरना तो ऐसा होना चाहिए की बार -बार के इस जन्म- मरण के चक्र से ही मुक्ति मिल जाये। उत्तम है की आत्मा को मोक्ष प्राप्ति हो जाए। आख़िरकार हर आत्मा का परम लक्ष्य होता है अपने स्रोत से मिल जाना अर्थात उस परम -आत्मा से विलय हो जाना मोक्ष प्राप्ति का परन्तु मोक्ष का मार्ग लम्बा और बहुत कठिन भी होता है इसमें असाधारण धैर्य और सबसे सबसे महत्वपूर्ण, दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होती है  समर्पित प्रयत्नों की आवश्यकता भी होती है जो कुछ ही लोग कर पाते हैं और सद्गुरु के मार्गदर्शन के बिना तो ये सब कुछ संभव ही नहीं है। 


महाराज जी सबका भला करें


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