इंसानियत का कर्म सभी धर्मों से सर्वोच्च और श्रेष्ठ होता है
"जो कहते हैं - हम, हमार नात-भाई, परिवार ठीक रहे, दुनिया मरे हमें क्या - उनका भला नहीं होता"
जो दूसरे का भला करता है, उसका भला होता है !
जो परमात्मा की सच्ची भक्ति करना चाहते हैं, वास्तव में उनके समीप जाना चाहते हैं, उनका मार्गदर्शन करते हुए महाराज जी समझा रहे हैं की इस मार्ग पर चलने वालों को सफलता के लिए ऐसे किसी द्वैत (दोहरा मापदंड) से बचना होगा जैसे की उनके अपनों के साथ तो सब अच्छा हो पर दूसरों के साथ बुरा हो या दूसरों के साथ कुछ भी हो उनसे कोई मतलब नहीं।
अपनों के लिए करना अच्छी बात है, करना भी चाहिए लेकिन दूसरों की उपेक्षा अनुचित है विशेषकर तब, जब हमारे समीप कोई परेशानी में हो, दुःख में हो, जरूरमंद हो और हम उसकी मदद करने में सक्षम होते हुए भी, अगर ऐसा नहीं करते हैं तो ये सही नहीं है। फिर हम चाहे जितना पूजा -पाठ, कीर्तन -भजन, भागवत, सत्संग करते हों - उसका वो परम आत्मा हमें लाभ नहीं देगा और जैसा महाराज जी कहते हैं ऐसे लोगों का भला नहीं होता।
क्योंकि हो सकता उस परम आत्मा ने हमें ही निमित्त बनाया हो उस ज़रूरतमंद की मदद करने के लिए ........ ऐसी परिस्थिति में हमारा कर्म ना करना हमें उस परम आत्मा की कृपा का पात्र नहीं बनने देगा।
हमारे महाराज जी हमें सिखाया है भूखे को खाना खिलाना इस श्रेणी में सबसे ऊपर आता है। वैसे परिस्थिति के हिसाब से, कैसे भी, अपने सामर्थ के अनुसार, हम दूसरों की मदद कर सकते हैं।
परमात्मा के प्रिय होने के लिए हमें करुणा की आवश्यकता है- हमें हर ज़रूरतमंद की, सामर्थ अनुसार, मदद करनी चाहिए, बिना किसी अपेक्षा के - उनकी भी जिन्हे हम नहीं जानते या जो हमारे उपकार का बदला भी न चुका सकें - जाति और धर्म से ऊपर उठकर।
इस तरह से पुण्य कमाने से निश्चय ही वो परम आत्मा हमारा प्रारब्ध काटने में हमारी मदद करेगा और जैसा महाराज जी कहते हैं हमारा भला भी होगा।