जीवन यात्रा में हममें से अधिकतर लोग अपने कर्म बिना सोचे -समझे करते हैं


चित्र - परमहंस राममंगलदास जी महाराज


नदी में हाथी की लाश बही जा रही थी। एक कौए ने लाश देखी, तो प्रसन्न हो उठा, तुरंत उस पर आ बैठा। यथेष्ट मांस खाया। नदी का जल पिया। उस लाश पर इधर- उधर फुदकते हुए कौए ने परम तृप्ति की डकार ली। वह सोचने लगा, अहा! यह तो अत्यंत सुंदर यान है, यहां भोजन और जल की भी कमी नहीं। फिर इसे छोड़कर अन्यत्र क्यों भटकता फिरूं?


कौआ नदी के साथ बहने वाली उस लाश के ऊपर कई दिनों तक रमता रहा। भूख लगने पर वह लाश को नोचकर खा लेता, प्यास लगने पर नदी का पानी पी लेता। अगाध जलराशि, उसका तेज प्रवाह, किनारे पर दूर-दूर तक फैले प्रकृति के मनोहरीदृश्य-इन्हें देख-देखकर वह विभोर होता रहा।


नदी एक दिन आखिर महासागर में मिली। वह मुदित थी कि उसे अपना गंतव्य प्राप्त हुआ -सागर से मिलना ही उसका चरम लक्ष्य था, किंतु उस दिन लक्ष्यहीन कौए की तो बड़ी दुर्गति हो गई। चार दिन की मौज-मस्ती ने उसे ऐसी जगह ला पटका था, जहां उसके लिए न भोजन था, न पेयजल और न ही कोई आश्रय। सब ओर सीमा हीन अनंत खारी जल-राशि तरंगायित हो रही थी।


कौआ थका-हारा और भूखा-प्यासा कुछ दिन तक तो चारों दिशाओं में पंख फटकारता रहा, अपनी छिछली और टेढ़ी-मेढ़ी उड़ानों से झूठा रौब फैलाता रहा, किंतु महासागर का ओर-छोर उसे कहीं नजर नहीं आया। आखिरकार थककर,  दुख से कातर होकर वह सागर की उन्हीं गगनचुंबी लहरों में गिर गया। एक विशाल मगरमच्छ उसे निगल गया।


शारीरिक सुख में लिप्त मनुष्यों की भी गति उसी कौए की तरह होती है, जो आहार और आश्रय को ही परम गति मानते हैं और अंत में अनन्त संसार रूपी सागर में समा जाते है। जीत किसके लिए, हार किसके लिए, ज़िंदगीभर ये तकरार किसके लिए ... जो भी आया है वो जायेगा एक दिन फिर ये इतना अहंकार किसके लिए …


ये लघु -कथा संभवतः हममें से बहुत से लोगों की जीवन यात्रा को दर्शाती है।


माँ की कोख से संसार में आये। खाना -पीना- घूमना- मस्ती करना, सिनेमा देखना, खेलों का आनंद, पसंद की वस्तु प्राप्त करना इत्यादि हमें शारीरक सुख देते हैं। इस संसार में आए हैं तो शारीरिक सुखों का रस लेना अच्छी बात है परन्तु जैसा हमने महसूस किया होगा, ऐसे सुखों की अवधि क्षणिक होती है।


फिर इनके साथ -साथ हम जीवन में छोटे -बड़े संघर्ष का सामना करते हैं,बीमारियों को भी झेलते हैं। और फिर जीवन में एक सेर सुख और तीन सेर दुःख के चक्र में बचपन -जवानी -बुढ़ापे बिताने के बाद अर्थी पर चढ़ कर संसार से विदा लेते हैं। तत्पश्चात अगले जन्मों में पुनः यही चक्र चलता है।


यहाँ तक तो हमारा जीवन इस लघु -कथा की तरह चलता है। अब कुछ ऐसी बातें करते हैं जो हमारे महाराज जी ने हमें सिखाई हैं।


जीवन यात्रा में हममें से अधिकतर लोग अपने कर्म बिना सोचे -समझे करते हैं (बुरे अधिक - अच्छे कम ) और फिर उनका फल भी भोगते हैं, अधिकतर वर्तमान जन्म में ही और बचे हुए अगले वाले में। वो सर्वज्ञ परम आत्मा हम आत्माओं के सभी कर्मों को देखता है। वो दयालु है परन्तु कर्म और कर्म -फल की अपनी बनाई हुई अचूक व्यवस्था को बदलता नहीं है - किसी के लिए भी नहीं !!


कभी -कभी जब हमारे ऊपर दुखों का पहाड़ टूटता है (हमारे ही द्वारा पहले किये गए बुरे कर्मों के फल मिलते हुए) तो हमें उस सर्व शक्तिशाली परम आत्मा की याद आती है। दुर्भाग्यवश वो होनी को बदलता नहीं है, प्रारब्ध को भी नहीं बदलता इसलिए बुरे कर्मों का फल का सामना करते हुए कभी -कभी हमें बहुत पीड़ा उठानी पड़ती है।


और अपने कर्मों के अनुसार हमारा नया जन्म होता है- कभी धन- संपत्ति से संपन्न घर में तो कभी निर्धन के यहाँ,  कभी शरीर के पूरे अंगों के साथ तो कभी अधूरे,  कभी स्वस्थ शरीर के साथ तो कभी कुछ बीमारियों के साथ इत्यादि।


अब महाराज जी जैसे सिद्ध गुरु के सानिध्य में आकर भी यदि हम अपने आज (वर्तमान जन्म) और कल (अगले जन्म) को सुधारने में, सुखमय बनाने में असमर्थ रहे तो ये कहीं ना कहीं दुर्भाग्यपूर्ण होगा। महाराज जी ने जीवन यात्रा में आनेवाली अनेकों परिथितियों में हमारा मार्गदर्शन किया हुआ है। परमार्थ और परस्वार्थ का मार्ग दिखाया है।


यदि हम उनके उपदेशों पर चल सकें तो हमारे जीवन में सुख और शांति निश्चित है। या जितना भी हम उनके उपदेशों पर चलने में सक्षम हों उतना ही हमारे जीवन में सुख होगा (और ये क्षणिक वाला नहीं होता है) - हाँ इस सन्दर्भ में हमारी कोशिश ईमानदार होनी चाहिए।


महाराज जी जी सबका भला करें।


Popular posts from this blog

स्वस्थ जीवन मंत्र : चैते गुड़ बैसाखे तेल, जेठ में पंथ आषाढ़ में बेल

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ गौरी रूपेण संस्थिता।  नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

!!कर्षति आकर्षति इति कृष्णः!! कृष्ण को समझना है तो जरूर पढ़ें