पीड़िता की नोची गयी देह में पहले उसकी जाति तलाशते हैं तो गिद्ध हैं आप


एक बात कहूँ? जब कोई व्यक्ति किसी बलात्कार पीड़िता के लिए न्याय मांगते समय उसकी जाति को बीच में लाता है न, तो दरअसल वह भी अपनी आत्मा का बलात्कार ही कर रहा होता है। यकीन कीजिये, यदि आपके अंदर यह कह सकने की हिम्मत नहीं कि "दुनिया की किसी लड़की का बलात्कार नहीं होना चाहिए" और आप पीड़िता की नोची गयी देह में पहले उसकी जाति तलाशते हैं तो गिद्ध हैं आप! बल्कि गिद्धों से भी गए गुजरे हैं।


कुछ लोग बलात्कार जैसे घिनौने मुद्दे पर भी बोलने के लिए विशेष मौका तलाशते हैं। कब ऐसा संयोग बने कि पीड़िता फलाँ जाति की हो और अपराधी भी विशेष वर्ग के हों, वे तभी बोलेंगे। मैं मानता हूं कि ऐसे लोग उन बलात्कारियों से तनिक भी कम घिनौने नहीं हैं। जो व्यक्ति बलात्कार जैसे अमानवीय अपराध को भी अपनी जातिवादी कुंठा निकालने का माध्यम बना ले, जो बलात्कार को अपराध से अधिक मौका समझता हो, आप सोचिये कि वह कितना घिनौना है।


हमलोग नेताओं को जातिवादी कह कर भला बुरा कहते रहते हैं। पर वे तो नेता ही हैं, जिन्हें हम आप हमेशा से ही बुरा समझते रहे हैं। पर ये लोग तो नेता नहीं। कोई छात्र है, कोई साहित्यकार है, कोई सामान्य नौकरीपेशा गृहस्थ है। इन्हें कौन सी राजनीति चमकानी है? ये क्यों इतना घिनौना व्यवहार कर रहे हैं? हमें सोचना होगा कि कौन लोग हैं इनके पीछे जो इतना गन्ध फैलाना चाहते हैं...


हाथरस वाली लड़की किसी भी जाति की हो, उसके अपराधी किसी भी जाति के हों, उन्हें सरेआम फाँसी होनी चाहिए। केवल उन्हें ही नहीं, बल्कि हर बलात्कारी को फाँसी ही होनी चाहिए। जबतक हम इन घिनौने बलात्कारियों के साथ मानवता पूर्वक व्यवहार करते रहेंगे, ऐसी घटनाएं नहीं रुकेंगी।


कुछ लोग कहते हैं कि बलात्कार के अधिकांश आरोप झूठे होते हैं। मैं कहता हूं सामूहिक बलात्कार के आरोप तो झूठे नहीं होते होंगे? 'बलात्कार और हत्या' के आरोप तो झूठे नहीं होते? क्यों न ऐसा हो कि सामूहिक बलात्कार और 'बलात्कार के बाद हत्या' के अपराधियों को महीने दिन के भीतर फाँसी दी जाय? जबतक ऐसा नहीं होगा, परिस्थिति नहीं बदलेगी।


मैं देख रहा हूँ कि किसी को अपने पुरुष होने पर लज्जा आ रही है, किसी को भारतीय होने पर लज्जा आ रही है, तो किसी को अपनी जाति पर लज्जा आ रही है। मुझे न अपने पुरुष होने पर लज्जा है, न अपनी जाति पर लज्जा है, न अपने देश पर... मैं जानता हूँ कि अब भी मेरे देश के अधिकांश पुरुष बलात्कार जैसे घृणित कार्य का मुखर विरोध करते हैं, थूकते हैं। मैं जानता हूँ कि अब भी भारत के गाँवों में बलात्कारियों का ऐसा सामाजिक बहिष्कार होता है कि उसके घर के दूसरे लड़कों की भी शादियां नहीं होतीं, और उन्हें अंत मे गांव छोड़ ही देना पड़ता है।


चन्द नीच धंधेबाज हैं जिन्होंने पिछले कुछ समय में गैंगरेप को फैशन बना दिया है, और चन्द विदेशी विचारों के गुलाम हैं जो किसी बलात्कारी को फाँसी से बचाने के लिए दिन रात एक कर देते हैं। और इन्ही के कारण उपजी है कुछ घिनौने लड़कों की फौज, जो ऐसे अपराध करती है। अगर ऐसे सौ पचास को भी सरेआम टांग दिया गया, तो लगभग लगभग रुक जाएगा यह अपराध। एक भारतीय के रूप में मैं बस उसी दिन का इंतजार कर रहा हूँ। 


(सर्वेश तिवारी श्रीमुख)


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