परमार्थ के साथ परमार्थ करने से ही हमारा उद्धार होगा

 



महाराज जी उपदेश दे रहे हैं:


भक्त अपना भाव प्रकट नहीं करते, सब चला जाता है। तमाम लिखकर भेजते हैं, सब पढ़ने वाले तारीफ करते हैं, वे खुश होते हैं। चोर, माया सब लूट लेते हैं, कोई कुछ जमा नहीं कर पाते - कैसे पार होंगे? क्या गुरू हाथ पकड़ कर ले जावेंगे?
जो वचन ऋषियों के हैं उन पर चलते नहीं। पढ़ते, सुनते, लिखते, दूसरों को समझाते हैं। तब पकडि़ जावेंगे। बार-बार हमें कहते हैं, करते अपने मन का हैं, हमें दुख होता है।
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संभवतः महाराज जी यहाँ पर हमारे दोहरे मापदंड के बारे में बात कर रहे है, जो कि इस परिपेक्ष में गुरु और परमात्मा के प्रति हमारे भाव और भक्ति से सम्बंधित है। कहीं न कहीं हमारी भक्ति और हमारे भाव पूरी तरह सच्चे नहीं हैं। 


हम अपने गुरु से सम्बंधित बातों की चर्चा करते हैं या लिखते हैं, संभवतः इस अपेक्षा में कि उसे सुनने वाले या हमारा लिखा हुआ पढ़ने वाले उसकी सराहना करेंगे (पोस्ट लाइक करेंगे)।  ऐसे करने से हमें कुछ क्षण के लिए ख़ुशी तो मिल सकती है, थोड़ा अभिमान भी आ सकता है लेकिन इस कर्म को करने का वांछित फल नहीं मिलेगा।


इस संसार में रहते हुए कोई भी चीज़ हमेशा के लिए संचित या जमा नहीं कर सकते और अंत में हममें निहित चोर (हमारे विकार) अथवा नकारात्मकता और माया के चलते, कदाचित सब खो भी सकते हैं। ऐसी स्तिथि में हम इस संसार रूपी भवसागर से कैसे पार पाएंगे ? क्या हमारी अपेक्षा अपने गुरु से है की वो हमारा मार्ग -दर्शन करें, तब भी जब हम गुरु के सरल किन्तु महत्वपूर्ण उपदेशों पर भी नहीं चलते, कुछ तो कोशिश भी नहीं करते ????


हम महाराज जी से मदद की गुहार लगाते हैं लेकिन बाद में उनके कहे को, उपदेशों को भूल जाते हैं और करते अपने मन की हैं। महाराज जी कहते हैं की ये सब देख के उन्हें बहुत दुःख होता है। जो ऋषि - मुनियों के और विशेषकर अपने गुरु के उपदेश हैं- उन्हें हम पढ़ते हैं, सुनते हैं, सुनाते हैं, यहाँ तक की दूसरों को समझाते भी हैं- बस उन पर चलते नहीं हैं। ऐसे दोहरे मापदंड से तो हम फँस जाएंगे और हमारा उद्धार होना बहुत कठिन है।


महाराज जी के उपदेशों पर चलने से हमारा उद्धार निश्चित है। इस सन्दर्भ में उन्होंने परमार्थ और परमार्थ के धर्म को पालन करने का महत्त्व हमें कई बार समझाया है। परमार्थ अर्थात पूजा -पाठ, सत्संग, भजन, कीर्तन, कथा, जागरण इत्यादि। ये सब करना अच्छी बात है लेकिन इनके करने के साथ-साथ अगर हममें दूसरों के लिए दया भाव नहीं हैं, परायों की मदद करने से कतराते है , दूसरों को कष्ट देते हैं तो हमारे परमार्थ का हमें लाभ नहीं मिलने वाला।


परमार्थ के साथ परमार्थ करने से ही हमारा उद्धार होगा। अर्थात "बिना" किसी अपेक्षा के ज़रूरतमंदो (जिन्हे हम नहीं भी जानते) की मदद करना, सेवा करना बहुत अधिक नहीं केवल अपने सामर्थ के अनुसार और हाँ, जैसे महाराज जी ने हमें कई बार समझाया है कि अपने शरीर के किसी भी अंग से दूसरों को कष्ट नहीं देना चाहिए। इस सन्दर्भ में हमें अपनी ज़बान पर, जिव्हा पर नियंत्रण करने की कोशिश भी करनी होगी। परमार्थ, परस्वार्थ और दूसरों को कष्ट ना देने से हमारा जीवन सफल हो जाएगा। ऐसा करने से हमारे जीवन में शांति निश्चित ही आएगी और यही हमारे महाराज जी की मुख्य उपदेशों में भी है।


महाराज जी सबका भला करें।


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