वैराग्य भोग की प्रतिक्रिया है

यह भी कम सुन्दर नहीं कि जीवन की एक और दीवाली बीत गयी। बीत जाना ही समय की नियति होती है न! दुख के दिन हों या सुख के पल, वे बीत जाने के लिए ही आते हैं। दीवाली का अगला दिन हमारे यहाँ परुआ का दिन होता है। कम्प्लीट छुट्टी का दिन। इस दिन पशुओं को भी काम से मुक्ति दे दी जाती है। हमारे पूर्वज जानते थे कि खुशियों के बाद उदासी का आना ही सच है; पर्व के बाद उदासी आनी ही है। सच्चे मनुष्यों के जीवन में यदि भरपूर उपलब्धियां आ जाए तो वह वैरागी हो जाता है। सुख हो या दुख, आवश्यकता से अधिक होने पर वह मनुष्य के मोह को मार देता है, वैरागी बना देता है, सो कभी कभी उदासी को भी उत्सव की तरह मना लेना चाहिए।


बहुत पहले एक सन्त से सुना था, वैराग्य चार प्रकार का होता है। पहला प्रकार है जन्मना वैराग्य, जिसमें मनुष्य में जन्म से ही वैराग्य का भाव होता है, जैसा कि ध्रुव में था। दूसरा प्रकार वह है जिसमें मनुष्य ब्रह्मचर्य और गृहस्थ दोनों धर्म के पालन के बाद उम्र के उत्तरार्ध में वैरागी हो जाता है। हमारे पूर्वजों ने इसे आवश्यक माना था। यह दोनों वैराग्य की उत्तम कोटियाँ हैं। वैराग्य का तीसरा प्रकार वह है जिसमें मनुष्य दुखों का भय से घर छोड़ कर वैरागी होता है, जैसे कुछ अपराधी जेल जाने के डर से कहीं दूर भाग कर साधू हो जाते थे और चौथी कोटि क्षणिक वैराग्य की होती है जो मनुष्य में अलग अलग स्थानों पर कुछ क्षण के लिए आती है। जैसे स्त्रियों में प्रसव के बाद, पुरुषों में श्मशान वैराग्य, या मैथुन के बाद उपजने वाला वैराग्य। यह दोनों वैराग्य की निम्न कोटियाँ हैं।


पहली दोनों कोटियाँ उत्तम हैं पर दुर्लभ हैं। अंतिम दोनों प्रकार निम्न स्तर के हैं पर सहज है। उत्तम अवस्था यूँ भी सहजता से प्राप्त नहीं होती। वस्तुतः वैराग्य भोग की प्रतिक्रिया है। जीवन में भोग, मोह, लोभ आदि की मात्रा जितनी अधिक होगी, वैराग्य उपजने की संभावना भी उतनी ही अधिक होगी। जीवन में संसारिकता जितना ही अधिक प्रवेश करेगी, मोह टूटने पर संसार से दूर भागने की चाह भी उतनी ही प्रबल होगी। आप आज की आधुनिक जीवनशैली देखिये, हर ओर बस भोग ही भोग पसरा हुआ है। जीवन के हर क्षेत्र में लोगों ने "इंज्वायमेंट" को ही अंतिम लक्ष्य बना लिया है। और इसी की प्रतिक्रिया है कि हमें रोज कहीं न कहीं से आत्महत्या की खबरें मिलती हैं।


पहले लोग अभावों से टूट कर आत्महत्या करते थे, अभी सफल और सम्पन्न लोग टूट जाते हैं। बड़े बड़े उद्योगपति, अभिनेता, अफसर या महंगी शिक्षा पा रहे छात्र... कारण वही है। सपनों का दबाव जितना ज्यादा होगा, सपनों के टूटने पर चोट उतनी ही ज्यादा लगेगी। हम यह नहीं कह रहे कि सपना देखना बुरा है। बुरी है सपनों को पूरी करने की जिद्द... कुछ लोगों की जिद्द पूरी हो जाती है तो लोग उन्हें आदर्श बता कर उनकी कहानियां सुनाते हैं। पर कहानियां सुनाने वाले उन असँख्य लोगों का नाम भी नहीं लेते जो अपने ही सपनों की बलि चढ़ गए होते हैं। जीवन के सितार पर सपनों के तार को उतना ही तानिये कि छोड़ने पर तार दूसरी ओर वैराग्य तक पहुँचे। इतना न तानिये कि छूटने पर तार टूट ही जाय।


छोड़िये! हम भटक गए... इस वर्ष की दीवाली पिछले पाँच सौ वर्षों की सबसे सुन्दर दीवाली थी। अहा! जाने कितनी पीढ़ियों की आंखें तरसती रह गईं अयोध्या में मन्दिर देखने के लिए। हम सौभाग्यशाली हैं जो हमारी आंखों से हमारे करोड़ों पूर्वज आज सजी-धजी अयोध्या देख रहे हैं। यह दीवाली देश के सौभाग्य की दीवाली थी। इसके लिए समय का धन्यवाद !!


सर्वेश तिवारी श्रीमुख


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