जब सब पराजित हो जाएं तब भी जीवन पराजित नहीं होता


भय पसरा हुआ है हर ओर, जैसे कभी कुरुक्षेत्र में लाशें पसरी हुई थीं। हर व्यक्ति एक दूसरे को सलाह दे रहा है कि बच कर रहिये, सतर्क रहिये। फिर भी दिल्ली में शराब की दुकानों पर भीड़ पागलों की तरह एक दूसरे पर चढ़ी जा रही थी। वे लोग भी अपने दोस्तों से कहते होंगे, "बच के रहो, सतर्क रहो..." सलाह केवल देने की चीज है। हम भी कह रहे हैं, सतर्क रहो दोस्त!

सत्ता, सरकार, व्यवस्था, प्रशासन... जब सब पराजित हो जाएं तब भी जीवन पराजित नहीं होता। वह चलता रहा है, चलता रहेगा। एक बात कहूँ? मृत्यु के माहौल में जिंदगी तलाश लेने का नाम जीवन है साहब! वरना जिन्दा तो वे भी हैं जो आज हजार रुपये का इंजेक्शन पैंतीस हजार में बेच रहे हैं। छह सौ की पतंजलि वाली किट अमेजन पर पच्चीस सौ की बिक रही है, और यह महान कार्य हम ही कर रहे हैं। हमारे भय का कारण हम स्वयं भी तो हैं...पर ये भय के दिन हमेशा नहीं रहने वाले, महीने दो महीने में ही सब सुधर जाएगा। इन दो महीनों के उस पार फिर गुलाब की डालियों पर खिलेंगे फूल, फिर सड़कों पर गूंजेगी स्कूल जा रही किशोरियों की निष्छल हँसी, फिर खिलखिलायेगी जिंदगी...देखना बस यह है कि इन विपत्ति के दिनों को हम किस तेवर के साथ जी रहे हैं।

तलाश कर देखिये, इस भय में भी हमारे चारों ओर जीवन का उल्लास पसरा हुआ है, बस हम उसकी ओर देख नहीं रहे। असंख्य लोग हैं जो अनजाने लोगों के लिए एक दूसरे से मदद मांग रहे हैं, कर रहे हैं। ये वे लोग हैं जो लड़ रहे हैं, ये वे लोग हैं जो हमारी जीत लिखेंगे। देश की प्रतिष्ठा इन्ही उत्साही लोगों की उंगली पकड़ कर चलती है। कामायनी में महाकवि जयशंकर प्रसाद युद्ध के कोलाहल में भी जीवन की बात करते हैं, "तुमुल कोलाहल कलह में मैं हृदय की बात रे मन..." सचमुच उनकी कविताओं में जीवन है। जीवन है पण्डित जसराज के गीतों में, जीवन है रेणु की कहानियों में, जीवन है नुशरत फतेह अली खान की कौवाली में...आदमी तलाशे तो कहाँ क्या नहीं मिलता, जिन ढूंढा तिन पाइयां... जरूरत है इस भय के बीच ही जीवन को तलाशने की, जहाँ से मिले...

जीवन है उन स्कूल टाइम के दोस्तों के कहकहों में, जिनसे इस भागदौड़ के बीच में बात किये वर्षों बीत गए हैं। जीवन है उन सहेलियों की चुगली में जो कबसे बंद पड़ी है। जीवन है उन पुराने रिश्तों में जो कबके छूट गए हैं। बस इन बन्द दरवाजों को खोलने की जरूरत है। भय दूर हो जाएगा, इस अंधेरे में भी जिन्दगी चहकने लगेगी। हम तो उस क्रूर समय को भी काट कर निकले हैं जब कोई बादशाह केवल अपनी अहम की संतुष्टि के लिए लाखों निर्दोषों को कटवा देता था, फिर यह बीमारी क्या चीज है। दिन लौटेंगे साधो... निस्ख़ातिर रहो।


सर्वेश तिवारी श्रीमुख

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