प्रारब्ध कारण है ही नहीं


प्रारब्ध कारण है ही नहीं ! प्रारब्ध तो परिस्थिति पैदा करता है इसमें अपनी ही गलती कारण है

कुछ श्रद्धा कुछ दुष्टता, कुछ संशय कुछ ज्ञान। घर का रहा न घाट का, ज्यों धोबी का श्वान। 

उसके द्वारा मेरी अवहेलना हुई है, वह मेरे अनुकूल नहीं चला है, उसने आज्ञा का पालन नहीं किया है, तब यह दशा होती है वह मेरी बात काटता है, मानता नहीं तो मेरा ऐसा भाव बनता है कि यह मेरी बात नहीं मानता, ठीक नहीं है, तो इस भावसे भी उसकी हानि हो जाती है। एक परिवार सत्संग में ज्यादा आया करता था एक बार रहने के लिए अनुकूल जगह नहीं मिली तो सत्संग छोड़कर दूसरी जगह चला गया सत्संग का यह तिरस्कार हुआ, जिसके परिणाम स्वरूप अब उनका सत्संग में आना बंद हो गया इस प्रकार छोटी सी गलती का भी परिणाम बड़ा होता है।
केश सराह्यो रेनुका, बँधी न जल की पोट। 
साहिब  के  दरबार में, रती न भावै  खोट।।

सत्संग का विशेष सार यह समझ में आया कि अपना कल्याण चाहने वाले साधको को अपने से बड़ों की आज्ञा का कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिये वैसे भी सामान्य व्यवहार काल में भी आज्ञा पालन करने वालों की समाज में प्रतिष्ठा और उन्नति हुई है वैसी प्रतिष्ठा और उन्नति, आज्ञा देने वालों की नहीं हुई है एक पौराणिक कथा हैं- जिसमें आज्ञा पालक को त्रिलोकी में सब से श्रेष्ठ एवं उच्च पद की प्राप्ति हुई है। एक आश्रम में एक शिष्य था, जो बहुत ही सीधा-साधा और भोला था। पढ़ाई में भी होशियार नहीं था, किंतु आज्ञा पालन में प्रखर था। अन्य 8, 10 विद्यार्थी थे, जो पढ़ाई-लिखाई में होशियार थे। जिसके कारण उनमें अभिमान भरा हुआ था, वे छोटे विद्यार्थी से नफरत करते थे।

किंतु आज्ञा पालक होने के कारण, गुरुजी उस पर विशेष स्नेह रखते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के लिए उसे उटपटांग आज्ञा दिया करते थे। जैसे उसे कहते संदीपनी झोपड़े के आग लगा दो तो वह तुरंत आग लगा देता, फिर बड़े बच्चे उसे मारने लिये दोड़ते, परन्तु उन्हें यह नहीं कहता कि मुझे मारते क्यों हो गुरुजी ने आज्ञा दी थी और गुरुजी भी यह नहीं कहते थे कि मैंने आज्ञा दी थी। ऐसे ही कभी कहते अपने बच्चे को कुएं में डाल दो, और वह डाल देता, कभी कहते गायों के बछड़े खोल दो और वह तुरंत खोल देता और बछड़े गायों का दूध पी जाते।

इस प्रकार से गुरुजी की परीक्षा चलती रही, वह मार खाता रहा, किंतु कभी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया। आखिर में जब गुरुजी का शरीर शान्त होने लगा तब सब शिष्यों को बुलाकर यथा योग्य उनको भेट आदि देकर सबको प्रसन्न किया। किंतु छोटे शिष्य को बुलाकर कहाँ, तेरे योग्य मेरे पास कोई वस्तु नहीं है। मैं तुझे अपने हृदय से आशीर्वाद देता हूँ, कि  बेटा "संदीपनी" एक दिन तुम्हारे पास इस संदीपनी आश्रम में जगतपिता, भगवान श्री कृष्ण शिक्षा ग्रहण करने के लिये आयेगें और समय पाकर ऐसा ही हुआ था।

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