बिना कहानियों के कैसे होगा बच्चों के चरित्र का निर्माण?


आप मेरी कहानी अपने बच्चों को सुनाते हैं न? ज़रूर सुनाइएगा। आजकल दादी, नानी तो घर में होती नहीं और होती हैं तो उनके पास रोज़-रोज़ कहानियां नहीं होतीं। बिना कहानियों के बच्चों का चरित्र निर्माण कैसे होगा? बच्चे ए फॉर एप्पल तो सीख लेंगे, ट्विंकल-ट्विंकल लिटल स्टार भी रट लेंगे और दूध, बॉर्नविटा पीकर बड़े भी जाएंगे लेकिन लोक-व्यवहार और आनंद का पाठ कहां पढ़ पाएंगे? इसके लिए तो संजय सिन्हा की कहानियां ही सुननी होंगी।

आप तो जानते हैं कि मेरा लालल-पालन लोक-व्यवहार और आनंद की गोद में हुआ है। मां ने कहानियां सुना कर और पिता ने जीवन दर्शन समझा कर मेरा निर्माण किया है। आज मैं आपको जो कहानी सुनाने जा रहा हूं उसमें कर्ज़, फर्ज़ और मर्ज़ का जो पाठ है उसे मेरे पिता ने मुझे पढ़ाया था। मैं पहले आपको पूरी कहानी सना चुका हूं लेकिन ये जीवन का एक ऐसा पाठ है, जिसे हर किसी को बार-बार पढ़ना चाहिए। जब मैं छोटा था, मैंने पिताजी को इस बात के लिए कभी चिंता करते हुए नहीं देखा कि उनका बेटा स्कूल में क्या पढ़ता है। वो कभी-कभी मुझे अपने पास बैठाते थे लेकिन मैंने कभी उन्हें यह पूछते हुए नहीं पाया कि उनका संजू बेटा स्कूल में कौन सा विषय पढ़ रहा हूं।
 
कॉलेज में संजय सिन्हा कब साइंस छोड़ कर हिस्ट्री और इकोनामिक्स के विद्यार्थी बन गए, पिताजी को पता ही नहीं चला। यही नहीं, इकोनॉमिक्स ऑनर्स पढ़ता हुआ अचानक मैं इतिहास में ऑनर्स करने लगा, तो भी पिताजी ने कुछ नहीं कहा। वो मुझे कभी पढ़ाई के विषय में टोकते ही नहीं थे। एक बार मैंने उनसे कहा भी था कि आप मेरे भविष्य, मेरे करीयर की बिल्कुल चिंता नहीं करते। पिताजी ने कहा था कि उसकी चिंता ईश्वर को करनी है। मैं तो इतना ही जानता हूं कि जो व्यक्ति अपने कर्ज़, फर्ज़ और मर्ज़ को ठीक से समझता है, उसे कभी किसी चीज की चिंता करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। पिताजी कभी-कभी मुझसे बातचीत करते भी थे तो उनका फोकस चारित्रिक गुण-दोष पर अधिक होता। जवानी में भले उन्होंने मुझे पैसों के कर्ज़ का गुण-दोष समझाया हो लेकिन बचपन में वो मुझे फर्ज़ का पाठ भी उन्होंने ही समझाया था।
 
पिताजी ने मुझे ये भी समझाया था कि कर्ज़ सिर्फ पैसों का लेन-देन नहीं, रिश्तों का भी होता है। आदमी को कभी अपने उस कर्ज़ को नहीं भूलना चाहिए। मैं पूछता था कि पिताजी रिश्तों का कर्ज़ क्या होता है और इसे कैसे उतारा जाता है? पिताजी समझाते थे कि रिश्तों का कर्ज़ व्यवहार से होता है। कर्तव्य से होता है। और इसे फर्ज़ से उतारा जाता है। मान लो मां ने तुम्हें पैदा किया, तुम्हें पाला, पोसा, प्यार किया, तो यह तुम पर मातृत्व का कर्ज़ है। तुम उसे पैसों से नहीं उतार सकते। उसे सिर्फ फर्ज़ से उतार सकते हो। इसी तरह तुम्हारे ढेरों रिश्ते होते हैं, जिन्हें तुम अपने व्यवहार से समय-समय पर उतारते हो। कभी-कभी पिताजी कर्ज़ का बहुत व्यापक अर्थ समझाने लगते थे। कहते कि यह कर्ज़ आदमी के घर परिवार से निकल कर मुहल्ला, शहर, देश और दुनिया तक फैला हुआ है।
 
सबका हम पर कुछ न कुछ कर्ज़ होता है और हमें उसी अनुपात में उस कर्ज़ को अपने फर्ज़ से चुकाना चाहिए। मैं पूछता कि बाकी बच्चों के पिताजी तो अपने बच्चों को पास बिठा कर पूछते हैं कि वो डॉक्टर, इंजीनियर कैसे बनेंगे। आप तो कभी पूछते ही नहीं। पिताजी कहते कि आदमी को सिर्फ इस बात की चिंता करनी चाहिए कि उसका बेटा एक अच्छा आदमी बन जाए। डॉक्टर, इंजीनियर बनना आसान होता है, आदमी बनना मुश्किल होता है। मां का संजू बेटा अपने पिताजी की बातें बहुत गंभीरता से सुनता था। जितना सुनता था उससे ज्य़ादा समझ में नहीं आती थीं। जैसे-जैसे बड़ा होता गया, यह बात मेरी समझ में आती चली गई कि पिताजी क्यों कहते थे कि आदमी को अपने कर्ज़, फर्ज़ और मर्ज़ का ख़ूब ध्यान रखना चाहिए। अभी कुछ दिन पहले मेरे एक दोस्त की तबियत बहुत ख़राब हो गई। मैं उनसे अक्सर कहा करता था कि आपको अपने खाने-पीने का ध्यान रखना चाहिए। पर कौन किसकी सुनता है, जो वो मेरी सुनते। उन्हें टोकता हुआ मैं बार-बार खाने और पीने की बात कहता था।
 
मेरा ज़ोर पीने पर अधिक होता। पर उन्होंने मेरी एक न सुनी। धीरे-धीरे उनकी तबीयत अधिक ख़राब हो गई। डॉक्टर ने कहा कि शरीर में लीवर नामक एक अंग होता है, जो ख़राब हो गया है। मैं उनसे मिलने जब उनके घर गया, वो कहने लगे, संजय जी आपकी बात मुझे मान लेनी चाहिए थी। मैंने मर्ज़ को गंभीरता से नहीं लिया। संजय सिन्हा आज बीमारी पर अधिक बात नहीं करना चाहते। मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहते हैं कि आप भी अपने कर्ज़, फर्ज़ और मर्ज़ को समझने की कोशिश कीजिए। जो इन तीन शब्दों का अर्थ ठीक से समझ गया वो खुश रहता है। कभी-कभी सोचता हूं तो खुद में उलझ जाता हूं कि हमारे बड़ों ने हमें पढ़ाने का जो तरीका चुना था, वो सही था या जो तरीका हम अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए चुन रहे हैं वो सही है? मुझे नहीं लगता कि हम अपने बच्चों को कभी पास बैठा कर नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं। शायद इसीलिए डॉक्टर, इंजीनियर तो खूब पैदा हो रहे हैं, पर आदमी की बहुत कमी हो रही है अपने देश में।
 
 
संजय सिन्हा

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