अंतरराष्ट्रीय योग दिवस और महर्षि पतंजलि
आज विश्वभर में योग दिवस मनाया जा रहा है लेकिन महर्षि
पतंजलि जिन्हें योग का जनक माना गया है उनके बारे में आज भी लोग काफी कम
जानते हैं। पतंजलि
योगसूत्र के रचनाकार है जो हिन्दुओं के छः दर्शनों(न्याय, वैशेषिक, सांख्य,
योग, मीमांसा, वेदान्त) में से एक है।
भारतीय साहित्य में पतंजलि के लिखे
हुए ३ मुख्य ग्रन्थ मिलते हैः योगसूत्र, अष्टाध्यायी पर भाष्य और आयुर्वेद
पर ग्रन्थ। कुछ विद्वानों का मत है कि ये तीनों ग्रन्थ एक ही व्यक्ति ने
लिखे; अन्य की धारणा है कि ये विभिन्न व्यक्तियों की कृतियाँ हैं। पतंजलि
ने पाणिनि के अष्टाध्यायी पर अपनी टीका लिखी जिसे महाभाष्य का नाम
दिया (महा+भाष्य(समीक्षा, टिप्पणी, विवेचना, आलोचना))। इनका काल कोई २०० ई
पू माना जाता है। काशीवासी
आज भी श्रावण कृष्ण ५, नागपंचमी को छोटे गुरु का, बड़े गुरु का नाग लो भाई
नाग लो कहकर नाग के चित्र बाँटते हैं क्योंकि पतंजलि को शेषनाग का अवतार
माना जाता है। पतंजलि के
समय निर्धारण के संबंध में पुष्यमित्र कण्व वंश के संस्थापक ब्राह्मण राजा
के अश्वमेध यज्ञों की घटना को लिया जा सकता है। यह घटना ई.पू. द्वितीय
शताब्दी की है। इसके अनुसार महाभाष्य की रचना का काल ई.पू. द्वितीय शताब्दी
का मध्यकाल अथवा १५० ई.पूर्व माना जा सकता है।
पतंजलि की एकमात्र रचना
महाभाष्य है जो उनकी कीर्ति को अमर बनाने के लिये पर्याप्त है। दर्शन
शास्त्र में शंकराचार्य को जो स्थान 'शारीरिक भाष्य' के कारण प्राप्त है,
वही स्थान पतंजलि को महाभाष्य के कारण व्याकरण शास्त्र में प्राप्त है।
पतंजलि ने इस ग्रंथ की रचना कर पाणिनी के व्याकरण की प्रामाणिकता पर अंतिम
मुहर लगा दी है। पतंजलि
रसायन विद्या के विशिष्ट आचार्य थे - अभ्रक विंदास, अनेक धातुयोग और
लौहशास्त्र इनकी देन है। पतंजलि संभवत: पुष्यमित्र शुंग(१९५-१४२ ई.पू.) के
शासनकाल में थे। राजा भोज ने इन्हें तन के साथ मन का भी चिकित्सक कहा है।
योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शारीरस्य च वैद्यकेन।
योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतंजलिं प्रांजलिरानतोऽस्मि॥
(अर्थात्
चित्त-शुद्धि के लिए योग (योगसूत्र), वाणी-शुद्धि के लिए व्याकरण
(महाभाष्य) और शरीर-शुद्धि के लिए वैद्यकशास्त्र (चरकसंहिता) देनेवाले
मुनिश्रेष्ठ पातंजलि को प्रणाम!) ई.पू.
द्वितीय शताब्दी में 'महाभाष्य' के रचयिता पतंजलि काशी-मण्डल के ही निवासी
थे। मुनित्रय की परंपरा में वे अंतिम मुनि थे। पाणिनी के पश्चात् पतंजलि
सर्वश्रेष्ठ स्थान के अधिकारी पुरुष हैं। उन्होंने पाणिनी व्याकरण के
महाभाष्य की रचना कर उसे स्थिरता प्रदान की। वे अलौकिक प्रतिभा के धनी थे।
व्याकरण के अतिरिक्त अन्य शास्त्रों पर भी इनका समान रूप से अधिकार था।
व्याकरण शास्त्र में उनकी बात को अंतिम प्रमाण समझा जाता है। उन्होंने अपने
समय के जनजीवन का पर्याप्त निरीक्षण किया था। अत: महाभाष्य व्याकरण का
ग्रंथ होने के साथ-साथ तत्कालीन समाज का विश्वकोश भी है। यह तो सभी जानते
हैं कि पतंजलि शेषनाग के अवतार थे।
द्रविड़ देश के सुकवि रामचन्द्र दीक्षित
ने अपने 'पतंजलि चरित' नामक काव्य ग्रंथ में उनके चरित्र के संबंध में कुछ
नये तथ्यों की संभावनाओं को व्यक्त किया है। उनके अनुसार आदि शंकराचार्य
के दादागुरु आचार्य गौड़पाद पतंजलि के शिष्य थे किंतु तथ्यों से यह बात
पुष्ट नहीं होती है। प्राचीन
विद्यारण्य स्वामी ने अपने ग्रंथ 'शंकर दिग्विजय' में आदि शंकराचार्य में
गुरु गोविंद पादाचार्य को पतंजलि का रुपांतर माना है। इस प्रकार उनका संबंध
अद्वैत वेदांत के साथ जुड़ गया। इनका
जन्म गोनारद्य (गोनिया) में हुआ था लेकिन कहते हैं कि ये काशी में नागकूप
में बस गए थे। यह भी माना जाता है कि वे व्याकरणाचार्य पाणिनी के शिष्य थे।
पतंजलि को शेषनाग का अवतार भी माना जाता है। भारतीय
दर्शन साहित्य में पातंजलि के लिखे हुए 3 प्रमुख ग्रन्थ मिलते है-
योगसूत्र, अष्टाध्यायी पर भाष्य और आयुर्वेद पर ग्रन्थ।
विद्वानों में इन
ग्रथों के लेखक को लेकर मतभेद हैं कुछ मानते हैं कि तीनों ग्रन्थ एक ही
व्यक्ति ने लिखे, अन्य की धारणा है कि ये विभिन्न व्यक्तियों की कृतियाँ
हैं। पतंजलि ने पाणिनी के
अष्टाध्यायी पर अपनी टीका लिखी जिसे महाभाष्य कहा जाता है। इनका काल लगभग
२०० ईपू माना जाता है। पतंजलि ने इस ग्रंथ की रचना कर पाणिनी के व्याकरण की
प्रामाणिकता पर अंतिम मोहर लगा दी थी। महाभाष्य व्याकरण का ग्रंथ होने के
साथ-साथ तत्कालीन समाज का विश्वकोश भी है। पतंजलि
एक महान चकित्सक थे और इन्हें ही कुछ विद्वान 'चरक संहिता' का प्रणेता भी
मानते हैं। पतंजलि रसायन विद्या के विशिष्ट आचार्य थे- अभ्रक, विंदास,
धातुयोग और लौहशास्त्र इनकी देन है। पतंजलि संभवत: पुष्यमित्र शुंग
(१९५-१४२ ईपू) के शासनकाल में थे। राजा भोज ने इन्हें तन के साथ मन का भी
चिकित्सक कहा है।
द्रविड़
देश के सुकवि रामचन्द्र दीक्षित ने अपने 'पतंजलि चरित' नामक काव्य ग्रंथ
में उनके चरित्र के संबंध में कुछ नए तथ्यों की संभावनाओं को व्यक्त किया
है। उनके अनुसार शंकराचार्य के दादागुरु आचार्य गौड़पाद पतंजलि के शिष्य थे
किंतु तथ्यों से यह बात पुष्ट नहीं होती है। दरअसल
पतंजलि के योग का महत्व इसलिए अधिक है, क्योंकि सर्वप्रथम उन्होंने ही योग
विद्या को सुव्यवस्थित रूप दिया। पतंजलि के आष्टांग योग में धर्म और दर्शन
की समस्त विद्या का समावेश तो हो ही जाता है साथ ही शरीर और मन के विज्ञान
को पतंजलि ने योग सूत्र में अच्छे से व्यक्त किया है। पतंजलि
के योगसूत्र नामक पुस्तक में १९५ सूत्र हैं जो चार अध्यायों में विभाजित
है। पातंजलि ने इस ग्रंथ में भारत में अनंत काल से प्रचलित तपस्या और
ध्यान-क्रियाओं का एक स्थान पर संकलन किया और उसका तर्क सम्मत सैद्धांतिक
आधार प्रस्तुत किया। यही संपूर्ण धर्म का सुव्यवस्थित केटेग्राइजेशन है।
राजयोग
:पातंजलि की इस अतुल्य निधि को मूलत: राजयोग कहा जाता है। इस पर अनेक
टिकाएँ एवं भाष्य लिखे जा चुके है। इस ग्रंथ का महत्व इसलिए अधिक है
क्योंकि इसमें हठयोग सहित योग के सभी अंगों तथा धर्म की समस्त नीति, नियम,
रहस्य और ज्ञान की बातों को क्रमबद्ध समेट दिया गया है।
इस ग्रंथ के चार अध्याय है- (१)समाधिपाद (२) साधनापाद (३) विभूतिपाद (४) कैवल्यपाद।
(१)समाधिपाद
:योगसूत्र के प्रथम अध्याय 'समाधिपाद' में पातंजली ने योग की परिभाषा इस
प्रकार दी है- 'योगश्चितवृत्तिर्निरोध'-अर्थात चित्त की वृत्तियों का
निरोध करना ही योग है। मन में उठने वाली विचारों और भावों की श्रृंखला को
चित्तवृत्ति अथवा विचार-शक्ति कहते है। अभ्यास द्वारा इस श्रृंखला को रोकना
ही योग कहलाता है। इस अध्याय में समाधि के रूप और भेदों, चित्त तथा उसकी
वृत्तियों का वर्णन है।
(२)साधनापाद: योगसूत्र के दूसरे अध्याय- 'साधनापाद' में योग के व्यावहारिक पक्ष को रखा
है। इसमें अविद्यादि पाँच क्लेशों को सभी दुखों का कारण मानते हुए इसमें
दु:ख शमन के विभिन्न उपाय बताए गए है। योग के आठ अंगों और साधना विधि का
अनुशासन बताया गया है।
(३)विभूतिपाद: योग सूत्र के अध्याय तीन 'विभूतिपाद' में धारणा, ध्यान और समाधि के संयम
और सिद्धियों का वर्णन कर कहा गया है कि साधक को भूलकर भी सिद्धियों के
प्रलोभन में नहीं पड़ना चाहिए।
(४)कैवल्यपाद: योगसूत्र के चतुर्थ अध्याय 'कैवल्यपाद' में समाधि के प्रकार और वर्णन को
बताया गया है। अध्याय में कैवल्य प्राप्त करने योग्य चित्त का स्वरूप बताया
गया है साथ ही कैवल्य अवस्था कैसी होती है इसका भी जिक्र किया गया है।
यहीं पर योग सूत्र की समाप्ति होती है।
अंतत:
पतंजली ने ग्रंथ में किसी भी प्रकार से अतिरिक्त शब्दों का इस्लेमाल नहीं
किया और ना ही उन्होंने किसी एक ही वाक्य को अनावश्यक विस्तार दिया। जो बात
दो शब्द में कही जा सकती है उसे चार में नहीं कहा। यही उनके ग्रंथ की
विशेषता है।