जहां "मैं" होता है, वहाँ हार हो जाती है
प्रभु की इच्छा सर्वोपरि है जब हम कोई कार्य करते हैं, तो
उसमें "मैं" कर रहा हूँ की भावना रहती है। यह मैं अभिमान को दर्शाता है।
जहां मैं होता है, वहाँ हार हो जाती है। भगवदिच्छा को मानते हुए संपन्न किए गए कार्य में यदि हार होगी, तो भी
भगवान की इच्छा और जीत होगी, तो भी भगवान की इच्छा है।
इस भावना में हार
नहीं हो सकती क्योंकि अब प्रेरक भगवान हैं। इसी प्रकार जीवन में कर्म करते समय यदि हम अभिमान रखें कि मैं कर रहा
हूँ तो उसका फल भी हमें भोगना पड़ता है और जब भगवान को प्रेरक मानकर कर्म
करते हैं तो हार जीत से कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि उसमें प्रभु इच्छा
सर्वोपरि है।