डाककर्मी के पुत्र मुंशी प्रेमचंद ने लिखी साहित्य की नई इबारत- पोस्टमास्टर जनरल
वाराणसी। हिन्दी साहित्य के इतिहास में उपन्यास सम्राट के रूप में
प्रसिद्ध मुंशी प्रेमचंद के पिता अजायब राय श्रीवास्तव लमही, वाराणसी में
डाकमुंशी (क्लर्क) के रूप में कार्य करते थे। ऐसे में प्रेमचंद का
डाक-परिवार से अटूट सम्बन्ध था। मुंशी प्रेमचंद को पढ़ते हुए पीढ़ियाँ बड़ी हो
गईं। उनकी रचनाओं से बड़ी आत्मीयता महसूस होती है। ऐसा लगता है मानो इन
रचनाओं के पात्र हमारे आस-पास ही मौजूद हैं।
प्रेमचंद जयंती (31 जुलाई) की
पूर्व संध्या पर उक्त उद्गार चर्चित ब्लॉगर व साहित्यकार एवं वाराणसी परिक्षेत्र के पोस्टमास्टर जनरल कृष्ण कुमार यादव ने व्यक्त किये। पोस्टमास्टर
जनरल कृष्ण कुमार यादव ने कहा कि लमही, वाराणसी में जन्मे डाककर्मी
के पुत्र मुंशी प्रेमचंद ने साहित्य की नई इबारत लिखी। आज भी तमाम
साहित्यकार व शोधार्थी लमही में उनकी जन्मस्थली की यात्रा कर प्रेरणा पाते
हैं। हिंदी कहानी तथा उपन्यास के क्षेत्र में 1918 से 1936 तक के कालखंड
को 'प्रेमचंद युग' कहा जाता है। प्रेमचंद साहित्य की वैचारिक यात्रा आदर्श
से यथार्थ की ओर उन्मुख है। मुंशी प्रेमचंद स्वाधीनता संग्राम के भी सबसे
बड़े कथाकार हैं। कृष्ण कुमार यादव ने बताया कि, प्रेमचंद की स्मृति
में भारतीय डाक विभाग की ओर से 30 जुलाई 1980 को उनकी जन्मशती के अवसर पर
30 पैसे मूल्य का एक डाक टिकट भी जारी किया जा चुका है।
पोस्टमास्टर
जनरल ने कहा कि, प्रेमचन्द के साहित्यिक और सामाजिक
विमर्श आज भूमंडलीकरण के दौर में भी उतने ही प्रासंगिक हैं और उनकी रचनाओं
के पात्र आज भी समाज में कहीं न कहीं जिन्दा हैं। प्रेमचंद ने साहित्य को
सच्चाई के धरातल पर उतारा। प्रेमचन्द जब अपनी रचनाओं में समाज के उपेक्षित व
शोषित वर्ग को प्रतिनिधित्व देते हैं तो निश्चिततः इस माध्यम से वे एक
युद्ध लड़ते हैं और गहरी नींद सोये इस वर्ग को जगाने का उपक्रम करते हैं। यादव ने कहा कि प्रेमचन्द ने अपने को किसी वाद से जोड़ने की बजाय
तत्कालीन समाज में व्याप्त ज्वलंत मुद्दों से जोड़ा। उनका साहित्य शाश्वत है
और यथार्थ के करीब रहकर वह समय से होड़ लेती नजर आती हैं।