1515 साल पहले महान खगोलविद् वराह मिहिर ने सूर्य सिद्धांत नामक ग्रंथ की रचना की थी


यूएस का वैज्ञानिक संस्थान नासा और भारत का इसरो मंगल ग्रह के बारे में जिन तथ्यों पर रिसर्च कर रहे हैं, उनका उल्लेख तो १५०० साल पहले ही एक भारतीय वैज्ञानिक ने अपनी किताब में कर दिया था। ये खगोलविद् और कोई नहीं वराह मिहिर थे।


वराह मिहिर का जन्म सन् ४९९ में उज्जैन जिले के कपिथा गांव में हुआ था।
•उनके पिता आदित्यदास सूर्य के उपासक थे।
•वराह मिहिर ने गणित एवं ज्योतिष में व्यापक शोध किया था।
•समय मापक घटयंत्र, इंद्रप्रस्थ में लौह स्तंभ और वेधशाला की स्थापना उन्होंने ही करवाई थी। उनका पहला पूर्ण ग्रंथ सूर्य सिद्धांत था, जाे अब उपलब्ध नहीं है।


१५१५ साल पहले महान खगोलविद् वराह मिहिर ने सूर्य सिद्धांत नामक ग्रंथ की रचना की थी। इस ग्रन्थ में उन्होंने मंगल के अर्धव्यास का उल्लेख किया था जो भारत के मिशन मार्स और नासा की गणना से मिलती जुलती थी।  नासा ने रोवर सैटेलाइट से २००४ में मंगल के उत्तरी ध्रुव पर उपलब्ध पानी और ठोस रूप में मौजूद लोहे का पता लगाया था। पुराणों के आधार पर उस समय वराह मिहिर ने सूर्य सिद्धांत में मंगल पर पानी और लोहे की मौजूदगी का जिक्र किया था। आधुनिक मान्यताओं के अनुसार सौरमंडल के सभी ग्रहों की उत्पत्ति सूर्य से ही हुई है। वराहमिहिर ने लिखा था सभी ग्रहों की उत्पत्ति सूर्य से हुई है। मंगल सूर्य की संवर्धन किरण से जन्मा है।


इतिहास के आईने में मंगल भारतीय खगोलविदों ने मंगल सहित अन्य सौरग्रहों का अध्ययन विस्तारपूर्वक वैज्ञानिक रूप से किया है। इसे सूर्य सिद्धांत, गरुण पुराण, श्रीमदभागवत पुराण, मत्स्य पुराण, अग्नि पुराण में पढ़ा जा सकता है। इसके अलावा वराह मिहिर, भास्कराचार्य तथा आर्यभट्ट की रचनाओं में भी इनका विस्तार से वर्णन है। उक्त सभी सिद्धांत १५०० से २००० साल पुराने हैं। भारतीय खगोलविदों की खगोलीय गणना की माप योजन में है, जो आधुनिक १२.७५ किमी के बराबर है।


सम्राट विक्रमादित्य ने एक बार अपने राज ज्योतिषी से राजकुमार के भविष्य के बारे में जानना चाहा। राज ज्योतिष ने दुखी स्वर में भविष्यवाणी की कि अपनी उम्र के १८वे वर्ष में पहुँचने पर राजकुमार की मृत्यु हो जाएगी। राजा को यह बात अच्छी नहीं लगी। उन्होंने आक्रोश में राज ज्योतिषी को कुछ कटुवचन भी कह डाले।


लेकिन हुआ वही, ज्योतिषी के बताये गये दिन को एक जंगली सूअर ने राजकुमार को मार दिया। राजा और रानी यह समाचार सुनकर शोक में डूब गये। उन्हें राज ज्योतिषी के साथ किये अपने व्यवहार पर बहुत पश्चाताप हुआ। राजा ने ज्योतिषी को अपने दरबार में बुलवाया और कहा- राज ज्योतिषी मैं हारा आप जीते। इस घटना से राज ज्योतिषी भी बहुत दुखी थे। 


पीड़ा भरे शब्दों में उन्होंने कहा- महाराज, मैं नहीं जीता। यह तो ज्योतिष और खगोलविज्ञान की जीत है। इतना सुनकर राजा बोले- ज्योतिषी जी, इस घटना से मुझे विश्वास हो गया कि आप का विज्ञान बिल्कुल सच है। इस विषय में आपकी कुशलता के लिए मैं आप को मगध राज्य का सबसे बड़ा पुरस्कार ‘ वराह का चिन्ह ‘ प्रदान करता हूँ। उसी समय से ज्योतिषी मिहिर को लोग वराहमिहिर के नाम से पुकारने लगे।


वराहमिहिर के बचपन का नाम मिहिर था। वराहमिहिर का जन्म कपिथा गाँव उज्जैन में सन ५०५ ई. में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्हें ज्योतिष की शिक्षा अपने पिता से मिली।


एक बार महान खगोल विज्ञानी और गणितज्ञ आर्यभट्ट पटना (कुसुमपुर) में कार्य कर रहे थे। उनकी ख्याति सुनकर मिहिर भी उनसे मिलने पहुंचे। वह आर्यभट्ट से इतने प्रभावित हुए कि ज्योतिष और खगोल ज्ञान को ही उन्होंने अपने जीवन का ध्येय बना लिया।


मिहिर अपनी शिक्षा पूरी करके उज्जैन आ गये। यह विद्या और संस्कृत का केंद्र था। उनकी विद्यता से प्रभावित होकर गुप्त सम्राट विक्रमादित्य ने मिहिर को अपने नौ रत्नों में शामिल कर लिया और उन्हें ‘राज ज्योतिषी’ घोषित कर दिया।


वराहमिहिर वेदों के पूर्ण जानकार थे। हर चीज को आँख बंद करके स्वीकार नहीं करते थे। उनका दृष्टिकोण पूरी तरह से वैज्ञानिक था। वराहमिहिर ने पर्यावरण विज्ञान (इकोलोजी), जल विज्ञान (हाईड्रालाजी) और भू – विज्ञान (जिओलाज़ी) के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य उजागर कर आगे के लोगो को इस विषय में चिंतन की एक दिशा दी।


वराहमिहिर द्वारा की गयी प्रमुख टिप्पणियाँ-


"कोई न कोई ऐसी शक्ति जरुर है जो चीजो को जमीन से चिपकाये रखती है। (बाद में इसी कथन के आधार पर गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत की खोज की गयी)"


"पौधे और दीपक इस बात की ओर इंगित करते है की जमीन के नीचे पानी है।"


वराहमिहिर ने अनेक पुस्तको की रचना भी की। संस्कृत भाषा और व्याकरण में अतिदक्ष होने के कारण उनकी पुस्तके अनोखी शैली में लिखी गयी है। उनकी सरल प्रस्तुती के कारण ही खगोल विज्ञान के प्रति बाद में बहुत से लोग आकृष्ट हुए। इन पुस्तको ने वराहमिहिर को ज्योतिष के क्षेत्र में वही स्थान दिलाया जो व्याकरण में ‘पाणिनि’ का है।


अपनी पुस्तकों के बारे में वराहमिहिर का कहना था- "ज्योतिष विद्या एक अथाह सागर है और हर कोई इसे आसानी से पार नहीं पा सकता। मेरी पुस्तक एक सुरक्षित नाव है, जो इसे पढ़ेगा यह उसे पार ले जाएगी।"


उनका यह कथन कोरी शेखी नहीं है, बल्कि आज भी ज्योतिष के क्षेत्र में उनकी पुस्तक को ”ग्रन्थरत्न” समझा जाता है।


वराहमिहिर ही पहले आचार्य हैं जिन्होंने ज्योतिष शास्त्र को सि‍द्धांत, संहिता तथा होरा के रूप में स्पष्ट रूप से व्याख्यायित किया। इन्होंने तीनों स्कंधों के निरूपण के लिए तीनों स्कंधों से संबद्ध अलग-अलग ग्रंथों की रचना की। सिद्धांत (‍गणित)- स्कंध में उनकी प्रसिद्ध रचना है- पंचसिद्धांतिका, संहितास्कंध में बृहत्संहिता तथा होरास्कंध में बृहज्जातक मुख्य रूप से परिगणित हैं।


इन्हें शकाब्द ४२७ में विद्यमान बताया जाता है। ये उज्जैन के रहने वाले थे इसीलिए ये अवन्तिकाचार्य भी कहलाते हैं। इनके पिता आदित्यदास थे, उनसे इन्होंने संपूर्ण ज्योतिर्ज्ञान प्राप्त किया। जैसे ग्रहों में सूर्य की स्थिति है, वैसे ही दैवज्ञों में वराहमिहिर का स्थान है। वे सूर्यस्वरूप हैं। उनकी रचना-शैली संक्षिप्तता, सरलता, स्पष्टता, गूढ़ार्थवक्तृता और पांडित्य आदि गुणों से परिपूर्ण है। इन्होंने १३ ग्रंथों की रचनाएं की हैं।
 
इनका बृहज्जातक ग्रंथ फलित शास्त्र का सर्वाधिक प्रौढ़ तथा प्रामाणिक ग्रंथ है। इस पर भट्टोत्पली आदि अनेक महत्वपूर्ण टीकाएं हैं। आचार्य वराहमिहिर ने इस विज्ञान को अपनी प्रतिभा द्वारा बहुत विलक्षणता प्रदान की। ये भारतीय ज्योतिष शास्त्र के मार्तण्ड कहे जाते हैं। यद्यपि आचार्य के समय तक (नारद संहिता आदि में) ज्योतिष शास्त्र संहिता, होरा तथा सिद्धांत- इन तीन भागों में विभक्त हो चुका था तथापि आचार्य ने उन्हें और भी व्यवस्थित कर उसे वैज्ञानिक स्वरूप  प्रदान किया।


ज्योतिष के सिद्धांत स्कंध से संबद्ध इनके पंचसिद्धांतिका नामक ग्रंथ की यह विशेषता है कि इसमें इन्होंने अपना कोई सिद्धांत न देकर अपने समय तक के पूर्ववर्ती पांच आचार्यों (पितामह, वशिष्ठ, रोमश, पौलिश तथा सूर्य)- के सिद्धांतों (अभिमतों)- का संकलन कर महत्वपूर्ण कार्य किया है। इनकी बृहत्संहिता-स्कंध का सबसे प्रौढ़ तथा मान्य ग्रंथ है। इसमें १०६ अध्याय हैं। इस पर भट्टोत्पल की टीका बड़ी प्रसिद्ध है।


फलित ज्योतिष का बृहज्जातक को दैवज्ञों का कंठहार ही है। इसमें २८ अध्याय हैं। इसमें स्वल्प में ही फलित ज्योतिष के सभी पक्षों का प्रामाणिक वर्णन है। इसमें पूर्व प्रचलित पाराशरीय विंशोतरी दशा को न मानकर नवीन दशा-निरूपण दिया हुआ है। इस ग्रंथ का नष्टजातकाध्याय बड़े ही महत्व का है।


पृथ्वी की अयन-चलन नाम की ख़ास गति के कारण ऋतुये होती है इसका ज्ञान कराया। गणित द्वारा की गयी नई गणनाओं के आधार पर पंचाग का निर्माण किया। वराहमिहिर के अनुसार “समय समय पर ज्योतिषीयो को पंचाग सुधार करते रहना चाहिए क्योंकि गढ़ नक्षत्रो तथा ऋतुओ की स्थिति में परिवर्तन होते रहते है। ”


अलबरूनी जब भारत आया था तो उसने भी ज्योतिषशास्त्र तथा संस्कृत का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर वराहमिहिर के कुछ ग्रंथो का अरबी भाषा एम् अनुवाद किया।
 
मैंने स्वतः ब्रहज्जतकम पुस्तक का अध्ययन किया है जिसे पढ़ने के बाद मुझे विशेष आनन्द प्राप्त हुआ। जातक के जन्म से लेकर बल्कि यूं कह ले कि पूर्वजन्म के विषय मे जानकारी से लेकर मृत्यु के बाद तक की गति तक की सम्भवनाओ का वर्णन किया गया है। यदि अंध विस्वास से दूर हटकर मात्र वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी यह पुस्तक पढ़ी जाए तो यह काफी लाभप्रद हो सकती है।


                                  -निखिलेश मिश्रा


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