केरल में शुरू हुआ कोरोना से लड़ने के लिए कोंवालेसेंट प्लाज्मा थैरेपी का ट्रायल, यह ठीक हो चुके मरीज की एंटीबॉडी से इलाज का तरीका है 


ट्रायल सफल रहा तो जल्द ही कोरोना मरीजों का इलाज कोंवालेसेंट प्लाज्मा थैरेपी से किया जा सकता है। हाल ही में इंस्टीट्यूट को इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने केरल के एक इंस्टीट्यूट को इसके ट्रायल की अनुमति दी है। यह खास किस्म थैरेपी है। जिसमें कोरोना से उबर चुके मरीजों से ब्लड लिया जाता है और उसमें मौजूद एंटीबॉडीज को नए कोरोना के मरीजों में चढ़ाया जाता है। 


जापान में सबसे बड़ी फार्मा कंपनी टाकेडा भी इसी थैरेपी का ट्रायल कर रही है। टाकेडा का दावा है यह दवा कोरोना के मरीजों के लिए काफी कारगर साबित होगी। तर्क है कि रिकवर मरीजों से निकली एंटीबॉडी नए कोरोना मरीजों में पहुंचेगी और उनके इम्यून सिस्टम में तेजी से सुधार करेगी। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने अपने ब्लॉग में बताया इस थैरेपी का ट्रायल केरल के श्री चित्र तिरुनल इंस्टीट्यूट फॉर मेडिकल साइंस एंड टेक्नोलॉजी में होगा। इंस्टीट्यूट की डायरेक्टर डॉ. आशा किशोर ने ब्लॉग में इस थैरेपी के बारे में कई अहम जानकारियां दी हैं। 


1) कैसे काम करती है यह थैरेपी
ऐसे मरीज जो हाल ही में बीमारी से उबरे हैं उनके शरीर में मौजूद इम्यून सिस्टम ऐसे एंटीबॉडीज बनाता है जो ताउम्र रहते हैं। ये एंटीबॉडीज ब्लड प्लाज्मा में मौजूद रहते हैं। इसे दवा में तब्दील करने के लिए ब्लड से प्लाज्मा को अलग किया जाता है और बाद में इनसे एंटीबॉडीज निकाली जाती हैं। ये एंटीबॉडीज नए मरीज के शरीर में इंजेक्ट की जाती हैं इसे प्लाज्मा डेराइव्ड थैरेपी कहते हैं। यह मरीज के शरीर को तब तक रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ाता है जब तक उसका शरीर खुद ये तैयार करने के लायक न बन जाए।


2) एंटीबॉडीज क्या होती हैं?
ये प्रोटीन से बनीं खास तरह की इम्यून कोशिशकाएं होती हैं जिसे बी-लिम्फोसाइट कहते हैं। जब भी शरीर में कोई बाहरी चीज (फॉरेन बॉडीज) पहुंचती है तो ये अलर्ट हो जाती हैं। बैक्टीरिया या वायरस द्वारा रिलीज किए गए विषैले पदार्थों को निष्क्रिय करने का काम यही एंटीबॉडीज करती हैं। इस तरह ये रोगाणुओं के असर को बेअसर करती हैं। जैसे कोरोना से उबर चुके मरीजों में खास तरह की एंटीबॉडीज बन चुकी हैं जब इसे ब्लड से निकालकर दूसरे संक्रमित मरीज में इजेक्ट किया जाएगा तो वह भी कोरोनावायरस को हरा सकेगा।


3) ये एंटीबॉडीज मरीज के शरीर में कितने समय तक रहेंगी?
कोरोना मरीज को एंटीबॉडी सीरम देने के बाद यह उनके शरीर में 3 से 4 दिन तक रहेंगी। इस दौरान ही मरीज रिकवर होगा। चीन और अमेरिका की रिसर्च रिपोर्ट के मुताबिक, प्लाज्मा का असर शरीर में 3 से 4 दिन में दिख जाता है।


4) यह थैरेपी कितनी सुरक्षित है?
कोरोना सर्वाइवर की हेपेटाइटिस, एचआईवी और मलेरिया जैसी जांचों के बाद ही रक्तदान की अनुमति दी जाएगी। इस रक्त से जिस मरीज का ब्लड ग्रुप मैच करेगा उसका ही इलाज किया जाएगा। इस तरह किसी तरह का संक्रमण फैलने या मरीज को दिक्कत होने का खतरा न के बराबर है। 


5) किसे मिलेगा यह ट्रीटमेंट?
शुरुआत में यह ट्रीटमेंट कोरोना के कुछ ही मरीजों पर किया जाएगा, खासकर जिनकी हाल ज्यादा नाजुक होगी। बतौर क्लीनिकल ट्रायल ऐसा होगा। इसके लिए हम पांच मेडिकल कॉलेज से करार भी कर रहे हैं।


6) यह थैरेपी वैक्सीन से कितनी अलग होगी?
वैक्सीन लगने पर शरीर का रोग प्रतिरोधी तंत्र एंटीबॉडीज रिलीज करता है ताकि संक्रमण होने पर ये उस खास किस्म के बैक्टीरिया या वायरस को निष्क्रिय कर दें। ऐसा ताउम्र होता है। लेकिन इस थैरेपी में जो एंटीबॉडीज दी जा रही हैं वह स्थायीतौर पर ताउम्र नहीं रहेंगी। 


7) यह थैरेपी कितनी प्रभावी है?
बैक्टीरिया से संक्रमण होने पर हमारे पास एंटीबायोटिक्स रहती हैं लेकिन किसी नए वायरस का संक्रमण या महामारी फैलने पर एंटीवायरल तुरंत उपलब्ध नहीं होता। 2009-2010 में एच1एन1 इंफ्लुएंजा की महामारी के समय भी कोंवालेसेंट प्लाज्मा थैरेपी का प्रयोग किया गया था। इसके काफी बेहतर परिणाम मिले थे। संक्रमण को कंट्रोल किया गया था, मौत के मामलों में कमी आई थी। यही थैरेपी 2018 में इबोला महामारी के समय भी मददगार साबित हुई थी।


8) इस थैरेपी के प्रयोग में कितनी चुनौतियां हैं?
यह थैरेपी आसान नहीं है। कोरोना सर्वाइवर के ब्लड से पर्याप्त मात्रा में प्लाज्मा निकालकर बढ़ते संक्रमित लोगों के मुकाबले इकट्‌ठा करना चुनौती है। कोरोना से संक्रमित ऐसे मरीजों की संख्या ज्यादा है जो उम्रदराज हैं और पहले ही किसी बीमारी जैसे हाईबीपी और डायबिटीज से जूझ रहे हैं। ये सभी सर्वाइवर के ब्लड डोनेशन से रिकवर नहीं हो सकते।


(साभार दैनिक भास्कर)


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