पूर्वकाल का मनुष्य अपने मन को एकाग्र करके पूजा-पाठ किया करता था


सनातन धर्म में आदिकाल से पूजा-पाठ, कथा-सत्संग आदि का मानव जीवन में बड़ा महत्व रहा है। जहां पूजा पाठ करके मनुष्य आध्यात्मिक शक्ति अर्जित करता था, कुछ क्षणों के लिए भगवान का ध्यान लगा कर के उसे परम शांति का अनुभव होता था, वहीं कथाओं को सुनकर के उसके मन में तरह-तरह की जिज्ञासा उत्पन्न होती थी और यह जिज्ञासा जब समाधान होती थी तब मनुष्य को एक नवीन ज्ञान प्राप्त होता था। पुराणों में अनेकों उदाहरण ऐसे देखने को मिलते हैं जहां सत्संग करके जिज्ञासायें उत्पन्न हुई और उनका समाधान भी उसी सत्संग में हुआ। पूर्वकाल का मनुष्य अपने मन को एकाग्र करके पूजा-पाठ किया करता था एवं सत्संग में एकादश इंद्रियों को एकाग्र करके बैठता था, तब उसके मन में तरह तरह के प्रश्न उठते थे और उन प्रश्नों का समाधान करने के लिए वह गुरु की खोज करता था और उनके माध्यम से अपनी जिज्ञासा का शमन करके एक नई दिशा प्राप्त करके जीवन को सुंदर बनाने का प्रयास करता था। यम एवं नचिकेता का सत्संग इसका अद्भुत उदाहरण है ! जिसके माध्यम से मानवमात्र को ऐसा ज्ञान मिला जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। पूजा एवं ध्यान करके ध्रुव एवं प्रहलाद जैसे बालकों ने परमात्मा को प्राप्त कर लिया। विचारणीय है कि वे बालक हो करके परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं तो हम आप क्यों नहीं ? हम आप इसलिए नहीं प्राप्त कर सकते हैं इसका एक ही उत्तर हो सकता है कि हमारे मन में विकार उत्पन्न हो गए हैं।
आज का मनुष्य पूजा-पाठ तो बहुत करता है परंतु उसे उसका फल नहीं मिल रहा है। क्यों नहीं मिल रहा है यह विचार करने का विषय हैं। आज का मनुष्य सिर्फ घर के कोने में बनी हुई मंदिर में धूप बत्ती लगा लेना या किसी स्तोत्र का पाठ कर लेना ही पूजा समझता हैं। एक घंटे आंख बंद करके माला का जप करके वह समझता है कि हमने पूजा कर लिया। क्या यही पूजा है ? इसे कैसे पूजा माना जा सकता है ?  मनुष्य माला जपता रहता है और उसका ध्यान घर के अनेक कार्यों में लगा रहता है, इसे भला पूजा कैसे कहा जा सकता है ? मैं देख रहा हूं कि आज लोग सत्संग एवं कथाओं में समय व्यतीत करने एवं मनोरंजन के उद्देश्य ही जा रहे हैं। जिस प्रकार वे सत्संग में बैठते हैं उसी प्रकार उनके मन में जिज्ञासा उत्पन्न होती हैं। आज मनुष्य ऐसी-ऐसी जिज्ञासा प्रस्तुत करता है जिसको देख कर के बरबस ही हंसी छूट जाती है। आज के मनुष्य की जिज्ञासा अपने जीवन को जानने के लिए नहीं, बल्कि यह जानने के लिए ज्यादा होती है कि वह समय क्या था ? कितने समय का था ? आदि। कृष्ण एवं राम की आयु जानने का जिज्ञासु आज का मनुष्य अपना क्या भला कर सकता है ? यदि मनुष्य उनकी लीलाओं, जीवन आदर्शों के विषय में जिज्ञासु हो तो शायद कुछ प्राप्त कर ले ! मनुष्य को जिज्ञासा होनी चाहिए ! परंतु सर्वप्रथम उसकी जिज्ञासा यह होनी चाहिए कि मैं कौन हूं ? मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है ? या मैं कोई पूजा या पाठ करूं तो कैसे करूं ? परंतु आज के चकाचौंध भरे युग में मनुष्य के मन से यह सब जिज्ञासा लुप्त हो चुकी है !  इसीलिए मनुष्य इधर से उधर भटक रहा हैं।
आज भी मन को एकाग्र करके एवं वास्तविक जिज्ञासु बनकर सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है।


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