आत्म निर्भर हुआ मजदूर,अपनों के लिए बनाया गाड़ी


कोरोना की वजह से देश बंद है। ऐसे में प्रवासी कामगारों की स्थिति दिन-प्रतिदिन बद से बदतर होती जा रही है। देश बंदी के पहले चरण में सरकार ने या प्रवासियों से नहीं सोचा था कि देश बंदी इतने लम्बे समय तक चलेगी,लेकिन कोरोना मामले के बढ़ने के साथ ही यह समझ में आ गया था कि लड़ाई लम्बी चलेगी। देशबन्दी में सरकार का ध्यान हर तरफ गया लेकिन प्रवासियों की घर वापसी की ओर सरकार का ध्यान तब गया जब प्रवासी अपनी सुविधाओं से अपने गांव की ओर चल पड़े। सरकार को भी शायद अंदाजा नहीं था कि भारत में प्रवासियों की संख्या इतनी ज्यादा है। सरकार ने प्रवासियों के लिए ट्रेन चलाया लेकिन रजिस्ट्रेशन की प्रकिया इतना जटिल कर दिया कि हर किसी की पहुँच की बात नहीं रह गयी। प्रवासियों को रजिस्ट्रेशन फॉर्म पीडीएफ फॉरमेट में उसके मोबाइल पर मिला और वो भी अंग्रेजी में,अंग्रेजी में इसलिए की दक्षिण भारतीय प्रवासी भी उसे भर सकें,उस फॉरमेट का प्रिन्ट निकालकर और उसे भरकर घंटों या यों कहें कई दिनों तक लम्बी लाइन लगाकर जमा करना होता है उसके बाद आम दिनों से मंहगा ट्रेन का किराया भी देना होता है जैसा की कई प्रवासियों से बातचीत करने और उसके टिकट को देखने से पता चला है | 


देशबंदी के बाद प्रवासियों के पास सबसे बड़ी समस्या भूख और रोजगार की सामने आने लगी,उपर से घर का किराया। 22 मार्च को जनता कर्फ्यू के पहले होली पर्व था जिसमे कई प्रवासी घर आये थे और अपनी कमाई गाँव में ही खर्च कर वापस अपने काम पर लौटे थे | मार्च महीने में काम भी 23 मार्च तक ही चला और कहीं तो 20 ही मार्च तक,उसके बाद से देश अभी तक बंद है,कुछ सेक्टर में काम चल भी रहा है तो मात्र 33 प्रतिशत कर्मचारी ही कार्यालय आ सकते हैं | ऐसे में रोजगार की समस्या भी उत्पन्न होने लगी साथ ही मार्च का वेतन तो पूरा मिला लेकिन अप्रैल में 99 प्रतिशत कामगारों को सिर्फ 15 दिन का ही वेतन मिला | जो कामगार महीने भर का वेतन पाकर भी अपना परिवार ठीक से नहीं चला पाते थे अब वो 15 दिन के वेतन में क्या करेंगे,क्योंकि उसी में उन्हें किराया भी देना है,खाना भी है और दवा भी लेनी है। इन समस्याओं को बढ़ता देख कामगार मजबूरी में शहर छोड़ने को मजबूर हैं। उन्हें लगता है कि किसी भी तरह गांव पहुँच गए तो कम से कम भूखे तो नहीं मरेंगे। सरकार ने अन्न और पैसा दोनों ही मुहैया कराया लेकिन उसका लाभ प्रवासियों को नहीं मिला,कारण 99.9 प्रतिशत ऐसे प्रवासी हैं जिन्हे राशन कार्ड नहीं है और ऐसे कई जनधन खाते हैं जिसमे सरकार द्वारा घोषित 500 रुपया का एक भी किस्त अभी तक नहीं पहुंचा।



देश बंदी के डेढ़ महीने बाद प्रवासियों की क्षमता यह नहीं रही कि वह रेल किराया भर सके और अगर है भी तो रजिस्ट्रेशन की प्रकिया इतनी जटिल है कि हर किसी के बस में नहीं है | सरकार प्रवासियों की घर वापसी के लिए काम कर रही है इसमें सन्देह नहीं है लेकिन सरकारी प्रकिया जटिल है और रेल खर्च उठाना मुश्किल,अगर सरकार 20 लाख करोड़ रूपये का बूस्टर डोज अर्थव्यवस्था को संभालने में लगा सकती है तो 2-4 करोड़ अर्थव्यवस्था की पहिया खींचने वालों में क्यों नहीं लगा सकती। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एकबार फिर 12 मई को टीवी पर आये उन्होंने सबके लिए कुछ ना कुछ कहा लेकिन प्रवासियों की घर वापसी के बारे में एक शब्द नहीं बोला। जनहित में 20 लाख करोड़ रूपये के बूस्टर डोज की घोषणा करने आये प्रधानमंत्री मोदी से देश के प्रवासी उम्मीद लगाए बैठे थे कि वो प्रवासियों की दशा पर भी कुछ कहेंगे लेकिन उन्होंने प्रवासियों के लिए कुछ नहीं बोला। प्रवासी करे तो करे क्या,कुछ भक्तजन कहते हैं कामगारों को पैदल चलने को मना किया गया है फिर भी पैदल क्यों चलते हैं। हे भक्तजन ईश्वर ना करे कभी आप पर यह विपदा आये,ये वही समझ सकता है जो विपदा झेल रहा है,ऐ.सी. के ठंढे कमरों में बैठकर आपके लिए बोलना तो आसान है लेकिन प्रवासियों का दर्द समझना मुश्किल है।


12 मई को टीवी पर अपने लम्बे भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने कई बार "आत्मनिर्भर भारत" का आह्वान किया आज उसी का असर है कि प्रवासी कामगारों ने सरकार को निकम्मा घोषित कर खुद को आत्मनिर्भर बना लिया है। हम अपने पाठकों के साथ दो चित्र साझा कर रहे हैं। पहले चित्र में गाडी नहीं मिली तो माँ ने अपने मासूम बच्चे को ट्रॉली बैग के ऊपर लटका लिया और अपने गंतव्य की ओर चल दिया और दूसरी तस्वीर में एक आदमी ने अपनी गर्ववती पत्नी और बच्चे के लिए स्वनिर्मित गाड़ी बना कर अपने आत्मनिर्भरता का परिचय देते हुए अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा। जरा सोचिये कोई माँ या कोई पति/पिता ऐसा किन हालातों में करता होगा ? क्या भक्तगण उसकी आह को महसूस कर सकते हैं ? कल एक व्यक्ति बैल की जगह खुद जुत गया और अपने परिवार को लेकर गांव की ओर चल पड़ा। कितने मजबूर हैं वो लोग जो इतना कष्ट झेलकर अपने घर जा रहे हैं। क्या उन्हें सुख अच्छा नहीं लगता ? क्या सरकारी ट्रेन उन्हें रास नहीं आ रहा है ? क्या ये विपक्ष की चाल है ? क्या सरकार को बदनाम करने की साजिश चल रही है ? नहीं साहब सोचकर देखिएगा ये भारत की सच्ची तस्वीर है असल में भारत ऐसा ही है। यहाँ मजबूरों की संख्या करोड़ों में हैं तो भक्तों या अमीरों की संख्या सैकड़ों में। यह मजबूर भारत की मजबूत तस्वीर है जो शासक को उसकी सच्ची तस्वीर दिखा रहा है।  


(जितेन्द्र झा) 


          


 


 


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