इंसान अपने विचार और सोचने का स्तर ठीक कर ले तो जीवन को मधुवन बनते देर ना लगेगी
मनुष्य कर्मों से अधिक अशांत नहीं है वह इच्छाओं से, वासनाओं से अधिक अशांत है। जितने भी द्वंद, उपद्रव, अशांति और सबसे ज्यादा अराजकता कहीं है तो वह व्यक्ति के भीतर ही है।
मनुष्य अपना संसार स्वयं बनाता है। पहले कुछ मिल जाये इसलिए कर्म करता है। फिर बहुत कुछ मिल जाये इसलिए कर्म करता है। इसके बाद सब कुछ मिल जाये इसलिए कर्म करता है। उसकी यह तृष्णा कभी ख़त्म नहीं होती। जहाँ ज्यादा तृष्णा है वहाँ चिंता स्वभाविक है।
जहाँ चिंता है वहाँ कैसी प्रसन्नता ? कैसा उल्लास ? यदि मनुष्य की तृष्णा शांत हो जाये, उसे जितना प्राप्त है उसी में सन्तुष्ट रहना आ जाये तो वह कभी भी अशांत नहीं रहेगा। इंसान अपने विचार और सोचने का स्तर ठीक कर ले तो जीवन को मधुवन बनते देर ना लगेगी।