भारतीय संस्कृति का उद्देश्य लोकमंगल - हृदय नारायण दीक्षित


लखनऊ। भारतीय संस्कृति के प्रत्येक तत्व का उद्देश्य लोकमंगल है। यह बात आज गोरखनाथ मन्दिर गोरखपुर द्वारा युगपुरुष ब्रह्मालीन महन्त दिग्विजयनाथ जी महाराज की 51वीं तथा राष्ट्रसंत ब्रह्मलीन महन्त अवेद्यनाथ जी महाराज की 6वीं पुण्यतिथि समारोह के अंतर्गत भारतीय संस्कृति एवं संस्कृतश् विषय पर आयोजित ऑनलाईन सम्मेलन को संबोधित करते हुए हृदय नारायण दीक्षित, अध्यक्ष विधान सभा उत्तर प्रदेश ने कही।


 श्री दीक्षित ने भारतीय संस्कृति को लोकमंगल बताते हुए दुर्गा शप्तशती के मंत्र का उल्लेख करते हुए कहा सर्व मंगल मांगल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके। पूरे लोक के लिए एवं इसके अलावा जो लोक हैं सबके लिए सम्पूर्ण लोकमंगल की कामना की गयी है।उन्होंने उत्तर वैदिक काल के साहित्य की चर्चा करते हुए कहा कि उत्तर वैदिक काल का सारा साहित्य व तत्व ज्ञान भी लोकमंगल को अर्पित है। दुनिया के अन्य देशों की संस्कृति भारतीय संस्कृति की तरह विश्व हित को अर्पित नहीं है। उनके यहां पन्थ, रिलिजन, सेक्ट, आस्था का विकास पहले हो गया। भारत की धरती पर पन्थ, रिलिजन, समूह, सेक्ट का विकास नहीं हुआ। सबसे पहले यहां दर्शन का विकास हुआ। यहां जिज्ञासा पहले आई समाधान बाद में। दुनिया की अन्य संस्कृतियों में समाधान पहले आए, जिज्ञासा के मुंह पर ताला डाल दिया गया। वैदिक काल में प्रश्न और जिज्ञासा को बढ़ावा दिया गया। यह निरन्तरता महाभारत में भी दिखाई पड़ती है। यही वाल्मीकि रामायण में भी दिखाई पड़ती  है। आज का यह भारत उसी सांस्कृतिक निरन्तरता मे हैं।


सम्मेलन में विधान सभा अध्यक्ष ने कहा कि प्रकृति हमारी परंपरा, दर्शन, चिंतन के अनुसार सदा से है, सदा रहती है। प्रकृति सतत सृजनरत भी रहती है। रोज कुछ न कुछ रचती है। प्रकृति प्रतिपल नई है। पुनर्नवा होती है। बार-बार नए रूप में हमारे सामने आती है। यह वातावरण भारत में ऋग्वेद और उसके रचनाकाल से भी बहुत पुराना है। दुनिया की किसी भी चिंतन धारा में आकाश पिता नहीं है। भारतीय चिंतन में, शोध व बोध में, पृथ्वी माता है। पूरा विश्व एक इकाई है। इस पूरे ब्रहमांड को भारतीय चिंतन में एक ही विराट इकाई माना गया है। भारत के राष्ट्र जीवन का शीलाचार के राष्ट्रजीवन की पद्धति, हमारे जीवन का दृष्टिकोण, हमारा रहन-सहन, हमारा गीत, हमारा संगीत, हमारा काव्य, हमारी जीवनशैली है। एक वातायन हमें प्रकृति ने दिया, एक वातायन हमारे पूर्वजों ने गढ़ा है। दूसरा वातायन संस्कृति कहलाया। संस्कृति मनुष्य के श्रम, तप का परिणाम है। सारी साधनाओं का उच्चतम प्रसाद है। सारी साधनाओं का उच्चतम मधु है। हमारे पूर्वजों ने सम्यक अध्ययन, सम्यक चिंतन, सम्यक प्रयोगों द्वारा जो रस, तत्व विश्व के लिए गढ़ा उसका नाम भारतीय संस्कृति है।माननीय सर्वोच्च न्यायालय के उद्धरण की चर्चा करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने ‘कम्पोजिट कल्चर’ की व्याख्या की है जो अपने आप में महत्वपूर्ण है। ‘कम्पोजिट कल्चर’ और कुछ नहीं है, यह संस्कृत की विरासत है। प्राचीन संस्कृति अर्थात जो  शीलाचार, विचार, तत्वज्ञान, अनुभूति भारत के जम्बूद्वीप भरतखण्ड में विकसित हुई है और संस्कृत में कही गयी है,वही भारत की संस्कृति है। संस्कृति को प्रवाहमान बनाने का काम भाषा के आधार पर संस्कृत ने किया।


श्री दीक्षित ने अपने ही देश के कुछ विद्वानों की मान्यता का जिक्र करते हुए कहा कि वे संस्कृत को कोई भाषा नहीं बल्कि एक डेड लैंग्वेज मानते हैं। इस पर संस्कृति और संस्कृत के बारे में मैक्स मुलर की किताब ‘व्हॉट इण्डिया कैन टीच अस’ का उद्धरण देते हुए कहा कि वे भारत के बारे में लिखते है कि- ‘‘यदि मैं संसार में किसी देश की खोज करूं, जहां प्रकृति ने किसी हिस्से में संपत्ति, शक्ति और सुंदरता का वरदान दिया है, तो मैं भारत की ओर इंगित करूंगा।’’ इससे भी बड़ी बात कहते हैं ‘‘यदि मुझसे कोई पूंछे कि किस आकाश के नीचे मनुष्य मष्तिस्क ने अपने श्रेष्ठतम वरदानों को अत्यंत पूर्णता से विकसित किया और जीवन की तमाम समस्याओं का समाधान पाया, तो मैं भारत की ओर इशारा करूंगा।’’


 श्री दीक्षित ने कहा कि मैक्स मुलर भारतीय नहीं थे, परन्तु उन्होंने ऋग्वेद का सुंदर अनुवाद किया। विलियम जोन्स ने संस्कृत को सबसे प्राचीन भाषा बताया। संस्कृत ने भारतीय संस्कृति को प्रवाहमान बनाया। कौटिल्य ने दुनिया का प्रथम अर्थशास्त्र संस्कृत में लिखा। संस्कृत एक समय लोकभाषा थी। मार्क्सवादी चिन्तक डॉ0 रामविलास शर्मा ने भी कहा कि संस्कृत लोकभाषा थी। संस्कृत में विपुल साहित्य रचा गया। भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र संस्कृत में लिखा। पाणिनि ने अष्टाध्यायी की रचना भी संस्कृत में की। यूरोप में आधुनिक काल में अर्थशास्त्र पर एडम स्मिथ की रचना आई। संस्कृत के माध्यम से एक नये तरह का सौन्दर्यबोध विकसित हुआ जो दुनिया के अन्य देशों के साहित्य में नहीं मिलता है। कालिदास की तुलना यूरोप के किसी भी विद्वान से नहीं हो सकती।


उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में योग अब अंतर्राष्ट्रीय चर्चा का विषय है। योग को प्रधानमंत्री ने पूरे विश्व में चर्चा का विषय बनाया। इसी तरह का काम गोरक्षपीठ द्वारा बहुत पहले से किया जा रहा है। गोरक्षपीठ आज के समय से नहीं बहुत पहले से ही दुनिया के तमाम देशों में चर्चित है। संस्कृत एवं संस्कृति कि इस परम्परा को योगी आदित्यनाथ जी भी आगे बढ़ाने का कार्य कर रहे हैं।


इस आयोजन में सुरेश दास जी महाराज, श्री अमित , अविनाश प्रताप , प्रदीप राव एवं प्रोफेसर सदानंद ने भी प्रतिभाग किया।


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