चुनावी खर्च ने बनाया नेताओं को बेईमान
इन दिनों अभिभावक की आवाज को लेकर संघर्षरत हूँ। इस संघर्ष के 3 माह पुरे हो गए फिर भी ना तो सत्ता पक्ष ने कुछ किया और ना ही विपक्ष ने इसमें दिलचस्पी ली। मैं गहरी सोच में पड़ गया कि आखिर इस देश में जनता के दर्द को क्यों नहीं समझा जाता है। सभी नेता अपनी डफली अपना राग ही क्यों अलापते हैं ? देश में जो मूलभूत अधिकार होना चाहिए वो व्यापार कैसे बन गया ? इस देश के नागरिक आखिर किस राजनीतिक दल पर भरोसा करे ? केन्द्र में वर्तमान भाजपा सरकार से पहले कांग्रेस की सरकार थी उसी तरह उत्तर प्रदेश में वर्तमान भाजपा सरकार से पहले समाजवादी पार्टी की सरकार थी। उस सरकार में भी आम आदमी हाशिये पर था इस सरकार में भी आम आदमी हाशिये पर है। आखिर जनता किस पर भरोसा करे ? रोटी,कापड़ा और मकान जैसे अभियान 70 वर्षों से चल रहे हैं फिर भी पुरे नहीं हुए क्यों ? एक समय था लोग शिक्षा को लेकर जागरूक नहीं थे। सरकारों ने जागरूकता अभियान चलाया और जब लोग जागरूक हो गए तो उसी शिक्षा को व्यापार बना दिया गया , आखिर क्यों ?
देश की दो प्रमुख पार्टियाँ हैं जिसके बिना केन्द्र की सत्ता पर किसी का अधिकार नहीं हो सकता है। एक कांग्रेस दूसरा भाजपा। आजादी के समय से लेकर अभी तक देश में सैकड़ों राजनैतिक दल बने लेकिन कांग्रेस और भाजपा के अलावा कोई भी दल नहीं है जो अपने बल पर सरकार बना ले। कांग्रेस और भाजपा के अलावा जितने भी दल बने या बन रहे हैं सबकी सोच यही रहती है कि इन दोनों दलों से देश को मुक्ति दिलानी है और ईमानदार सरकार बनाना है। लेकिन अभी तक सब के सब फेल रहे हैं। अब लोगों के पास मजबूरी है कि उसे इन्ही दोनों में से किसी को चुनना है। हमारे देश में पहले समाज के प्रभावशाली व्यक्ति के कहने से ही लोग किसी को भी वोट दे देते थे। आज के समय में इसमें काफी सुधर आया है, लोग जागरूक हुए हैं लेकिन नतीजा अभी तक जीरो ही है।
केन्द्र में जब की कांग्रेस की सरकार थी तो बहुत घोटाले हुए ऐसा भाजपा ने दावा किया था। जिसकी वजह से लोगों ने भाजपा को जिताया। अब वर्तमान सरकार जीतने के बाद सरकारी उपक्रमों को कूड़े के भाव बेचने पर आमादा है। उसी प्रकार उत्तर प्रदेश की सरकार सारी योजनाएं गरीबों के लिए ला रही है लेकिन गरीब अपना हक मांगे तो उसे अनसुना कर देती है आखिर क्यों ?
काफी जद्दोजहद के बाद समझ में आया कि गलती सिर्फ नेताओं या सरकारों की नहीं है,गलती आम जनता की भी है। पहली गलती हम में सोचने - समझने की ताकत नहीं है ,दूसरा एकजुटता नहीं और तीसरा हमारे देश में कई विचारधाराओं के लोग हैं जिन्हे राजनैतिक संरक्षण प्राप्त है चौथा तड़क - भड़क पर हम ज्यादा ध्यान देते हैं। हमे इस बात से मतलब नहीं होता है कि हम जिसे वोट दे रहे हैं वो इंसान कैसा है , उसकी सोच क्या है,हमे सिर्फ मतलब होता है कि वो किस पार्टी से है, वो अपना प्रचार किस तरीके से कर रहा है और वो कौन सी गाड़ी से आया है। अगर कोई नेता के ऊपर डकैत,क्रिमिनल जैसी धाराओं में मुकदमे चल रहा हो और वो बड़ी लम्बी गाडी से आ रहा है तो हम उसे वोट देना ज्यादा उचित समझते हैं ना कि किसी पढ़े लिखे ईमानदार व्यक्ति को। अब जो प्रत्याशी चुनाव में जनता के लिए दारू,भोजन,मिठाई,पैसा आदि का व्यवस्था कराएगा वो तो उसकी भरपाई भी जनता से ही करेगा।
देश में हर वर्ष कहीं ना कही किसी ना किसी राज्यों में चुनाव होते ही रहते हैं जिसमे देश का पैसा तो खर्च होता ही है साथ में राजनैतिक दलों के पैसे भी खर्च होते हैं। 2014 का लोकसभा चुनाव इस देश का सबसे मँहगा चुनाव था,उस चुनाव में अरबों रूपये नेताओं ने खर्च किया जिसका लेखा जोखा कहीं नहीं है। अब वो अरबों रुपये किसी ना किसी का तो होगा ही। किसी राजनैतिक दल या व्यक्ति के पास इतने पैसे आएंगे कहाँ से ? चुनाव में पूँजीपति जिताऊ प्रत्याशी पर पैसे लगाते हैं,प्रत्याशी को पैसे की दिक्कत महसूस नहीं होने देते हैं,जनता भी सोचती है यही मौका है जब प्रत्याशी हमारे ऊपर खर्च कर रहा है,खूब खर्च कराते हैं और जब प्रत्याशी जीत जाता है तो फिर वही पूँजीपति उस प्रत्याशी से चार गुणा वसूलता है,अब जिस प्रत्याशी के पास चुनाव में खर्च करने के पैसे नहीं थे उसे जितने के बाद कहीं पैसे का पेड़ नहीं मिलता है जिससे वो अपने लिए भी दोत्ताला मकान तैयार कर ले,अपने पूँजीपति मित्रों का भी पैसा लौटा दे और अपने सगे सम्बन्धियों को भी धनवान बना दे। उसे उसके लिए चोरी करनी ही पड़ती है,घोटाला करना ही पड़ता है,सरकारी उपक्रम बेचने ही पड़ते हैं और उन पूजीपतियों को चौगुणा मुनाफा पहुँचाना ही पड़ता है साथ ही दूसरी बार चुनाव लड़ने के लिए भी धन इकट्ठा करना पड़ता है,दो चार पुश्तों तक पैसे की कमी ना रहे इसकी भी व्यवस्था करनी पड़ती है,और इन सब की व्यवस्था बिना जनता को लुटे किया नहीं जा सकता।
विचारने की जरुरत जनता को भी है। लोकतंत्र में जनता का जागरूक होना बहुत आवश्यक है। अगर जनता जागरूक नहीं हुई तो देश की तश्वीर बदलना असम्भव होगा चाहे सरकार मनमोहन की हो या मोदी की,सभी के राज में जनता उपेक्षित ही रहेगी। अगर इस देश की जनता और नेता ईमानदार होते तो इन 70 वर्षों में देश की जो मूलभूत आवश्यकतायें है रोटी,कपडा और मकान, इतना तो सबको मिल ही गया होता।
(जितेन्द्र झा)