दया -धर्म के बिना गती नहीं होती
महाराज जी किसी भक्त को समझा रहे हैं
(हमारे द्वारा दी हुई) पुस्तक दो बार पढ़कर, फिर हमसे पूछना तुम इस रीति से चल पावोगी, तब तो भगवान के यहाँ रजिस्टर पर नाम लिखाओ नहीं तो बेकार पूछना है। रहनि, गहनि, सहनि पहले लिखी जाती है, तब सब भजन सेवा -धर्म से ही पट खुल जाता है।
दया -धर्म के बिना गती नहीं होती है।
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जैसा की कुछ भक्तों को ज्ञात होगा, महाराज जी कभी -कभी अप्रसन्न होकर कहते रहे हैं की बहुत से भक्त उनके बताये मार्ग पर नहीं चलते हैं। कुछ तो कोशिश भी नहीं करते हैं।हम लोग कभी - कभी कुछ स्थितियों में बिना सोचे -समझे कुछ गलत- सही कर्म कर जाते हैं। बाद में जब उन गलत कर्म के फल भोगने की बारी आती है तो हम महाराज जी से गुहार लगते हैं की हमें इन विपदाओं से निकालिये। ऐसा होना संभव तो होता नहीं है क्योंकि अपने प्रारब्ध को तो सबको काटना ही होता है। हाँ महाराज जी उन संघर्ष वाले समय का सामना करने का हमें धैर्य प्रदान कर देते हैं और सही समय आने पर कुछ ना कुछ लीला करके उस संकट से निकालते भी हैं - यदि महाराज जी के लिए हमारे भाव सच्चे हैं -लेकिन संकट का समय टल नहीं सकता।
ये समय हमें कभी -कभी पीड़ा भी देके जाता है। ऐसे में महाराज जी को भी को भी तकलीफ होती है। इसी सन्दर्भ में महाराज जी के एक बार किसी भक्त से कहा भी कि तुम्हारे दुख से हमें दुख होता है। इन परिस्थितियों से बचने के लिए ही महाराज जी ने हमें अपने उपदेशों के माध्यम से ये सिखाया है की हमारा आचरण कैसा होना चाहिए या कैसे हम शरीर के विकारों का शमन/ नियंत्रित कर सकते हैं।
ऐसे ही यहाँ पर कोई भक्त महाराज जी से जानने का इच्छुक है की उनके कष्टों से पार पाने का क्या उपाय है ?
उत्तर में महाराज जी अपने तरीके से उन्हें संभवतः प्रोत्साहित कर रहे हैं कि वो महाराज जी द्वारा दिखाए गए मार्ग पर चल सके तभी कल्याण संभव है। ईश्वर के समीप जाने का यही मार्ग है। किसी ने इस सन्दर्भ में बड़ा अच्छा कहा हैं कि बिना विचारे जो करै, सो पाछे पछिताय। काम बिगारै आपनो, जग में होत हंसाय॥
महाराज जी यहाँ पर संभवतः समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं कि जीवन के उतार -चढाव की परिस्थितियों में हमें जल्दबाज़ी में प्रतिक्रिया देने के बजाय थोड़ी गहराई/ठहराव और सहनशीलता लाना है । ऐसे समय धैर्य को भी दृढ़ करना है ( रहनी -गहनी - सहनी) आडम्बर -दिखावे रहित जब हमारे भाव सच्चे होते हैं तो ये संभव है। यदि अपने जीवन में कष्टों से कम से कम सामना करना है तो रहन -सहन, आचरण में महाराज के उपदेशों का पालन यथासंभव करना है। धैर्य के साथ ईमानदार कोशिश तो करनी ही है तदुपरांत पूजा -पाठ, भजन, सत्संग, भक्ति इत्यादि का लाभ हमें मिलता है। और हाँ, महाराज जी ने अनेकों बार भक्तों को ये उपदेश भी दिया है कि सेवा धर्म से बड़ा कोई धर्म नहीं है अगर हममें दया की भावना है और हम निस्वार्थ भाव से और अहंकार रहित (मैंने किया !! के भाव के बिना) -ज़रूरतमंदों की यथासंभव सेवा करते हैं तो ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए और कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं है - हमारा ऐसा कर्म करना ही ईश्वर के भजन के समान है हम उनके समीप चले जाते हैं और हमारा जीवन सार्थक हो जाता है, उसे गति मिल जाती है।
महाराज जी सबका भला करें।