धन-मद, बल- मद, रूप- मद, विद्या- मद ये चारी , भव सागर की वारी में पकड़ी देत है डारी


चित्र - परमहंस राममंगलदास जी महाराज


महाराज जी भक्तों को उपदेश दे रहे हैं कि
हमें किसी संत ने लिखाया है
धन-मद, बल- मद, रूप- मद, विद्या- मद ये चारी।
भव सागर की वारी में,पकड़ी देत है डारी।
(वारी=जल)


हममें से बहुत से लोग किसी ना किसी प्रकार के अहंकार से ग्रसित हो जाते हैं - मेरे पास बहुत धन है -कितनी संपत्ति है, मैं कितना/कितनी सुन्दर हूँ, मैं कितना/कितनी ज्ञानी हूँ (किताबी ज्ञानी), मैं कितना बलवान हूँ, मेरी जाति उससे श्रेष्ठ है, मैं ईश्वर/गुरु का सबसे बड़ा/बड़ी भक्त हूँ, मेरा ओहदा उससे बड़ा है और ना जाने क्या क्या ... इसलिए मैं दूसरों से बड़ा/बड़ी हूँ …. श्रेष्ठ हूँ।  


अहंकार की भावनाएं आने के बाद प्रायः हमारी अपेक्षाएं दूसरों से बढ़ जाती हैं कि वे हमारा (अधिक) आदर करें। और ऐसा ना होने पर, अहंकार/मद में चूर होकर, हम अपने- परायों को दुःख पहुंचाते हैं। और फिर इस सबके साथ ही साथ हम ईश्वर की भक्ति भी करते हैं। अहंकार की वृत्ति से ग्रसित व्यक्ति को उसकी भक्ति लाभ नहीं मिलता। संभवतः इसीलिए महाराज जी भक्तों को यहाँ पर समझा रहे हैं कि इस संसार रूपी भव सागर में, धन- संपत्ति का मद, बल- शक्ति का मद, रूप- सुंदरता का मद और विद्या का मद - इस तरह के अहंकार हमें पकड़ के रख लेते है फलस्वरूप हमारा इस संसार रूपी भव सागर से पार निकलना -हमारा उद्धार होना बहुत कठिन हो जाता है।


जिन लोगों को अपने धनी होने का या बहुत सी संपत्ति होने का मद है, अहंकार है -क्या वे पूर्णतः सुखी हैं, क्या उनके जीवन में शांति है, संभवतः नहीं …… तो फिर ऐसा अहंकार किस काम का ? धन तो सुख प्राप्ति का साधन है (वो भी प्रायः आजीवन नहीं) , स्वयं सुख नहीं है !!


धन -संपत्ति होना अच्छी बात है और ये कहीं ना कहीं उनके ही हिस्से में आती है जिनके कर्म अच्छे हों - विशेषकर पूर्व जन्मों के क्योंकि तभी वे इस जन्म में या तो धनी परिवार में जन्म लेते हैं या फिर उनके इस जन्म में धनी बनने के लिए किये गए कर्मों का फल वो परम आत्मा जल्दी दे देता है धनी व्यक्ति को सुखी होने के लिए विनम्र होना चाहिए और ज़रूरतमंदो की बिना किसी अपेक्षा के मदद करनी करनी चाहिए। वैसे परम सत्य तो यही है की उस परम आत्मा के बनाये इस संसार में, उसी का बनाया हुआ वही मनुष्य सुखी है जिसकी अपना जीवन जीने के लिए कम से कम ज़रूरतें हों, आवश्यकताएं हों। 


जिनको अपने बलवान होने पर बहुत अहंकार है, मद है तो उन्हें ये बात याद रखनी चाहिए के ये बल उम्र के साथ ढलने लगता हैऔर यदि हमने बल के मद में दूसरों को दुःख पहुँचाया है तो इसका फल जब वो परम आत्मा हमें देगा तो पीड़ा हो सकती है, विशेषकर बुढ़ापे में जब शरीर शिथिल हो जाता है, दुर्बल हो जाता है और हम दूसरों पर निर्भर हो जाते हैं इसलिए बलवान व्यक्ति को भी विनम्र होना चाहिए और अपने बल को उपयोग, निस्वार्थ भाव, से उन जरूरतमदों की करनी चाहिए जिनमें बल की कमी हो। 


रूप के मद के ग्रसित लोगों को लोगों को तो इस बात का एहसास, अनुभूति ही पर्याप्त है की ये जब तक है, तब तक ही है और उम्र के साथ ढल जाएगा फिर तकलीफ हो सकती है इसलिए उस परम आत्मा के प्रति कृतज्ञ रहें की उसने आपको ऐसा बनाया है और दूसरों के प्रति विनम्र रहें, विशेषकर जिन्हें आपके जैसे रूप ना मिला हो। 


और जिन्हें अपने ज्ञानी होने का मद है - उन्हें जितनी जल्दी ये समाप्त हो जाए उतना ही उनके अपने लिए अच्छा है क्योंकि ऐसे लोग उस ज्ञान के अनुसार आचरण नहीं करते जिसका उन्होंने अध्यन किया है। ऐसे मद के फलस्वरूप सार्वजानिक अपमान होना की सम्भावना अधिक होती है फिर बहुत तकलीफ होगी और जिन्होंने ऐसे किताबी ज्ञान को अपनी आजीविका चलाने का साधन बना रखा है वे भी साधारण जन को बहुत समय तक भ्रमित नहीं कर सकते उनकी आजीविका पर भी बुरा असर पड़ सकता है अल्पावधि ख्याति प्राप्त करने की होड़ में दौड़ने के बजाय ऐसे किताबी ज्ञानियों के  विनम्र रहने में ही उनका कल्याण है विद्या विनय शोभते अर्थात विद्या और ज्ञान को विनय यानि नम्रता ही शोभा देता है।


एक पल के अहंकार का फल कभी -कभी हमें आजीवन पीड़ा दे सकता है, कभी तो अगले जन्म में भी -यदि हमने दूसरे को बहुत या ऐसी ही परिस्थितियों में कई बार दुःख पहुंचाया है फिर कोई सुनवाई नहीं होती है अहंकार की भावना प्रायः हमें अपने से भी दूर कर देती है।


महाराज जी के भक्तों को जहाँ तक हो सके किसी भी अहंकार से बचने की कोशिश करनी चाहिए- अपने ही आध्यात्मिक उत्थान के किये, अपने जीवन में सुख और शांति पाने के लिए। 


महाराज जी सबका भला करें


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