कृषि एवं मौसम वैज्ञानिक- घाघ नीति ----------------------------------------------- 1- चैते गुड़ बैसाखे तेल, जेठ में पंथ आषाढ़ में बेल। सावन साग न भादों दही, क्वारें दूध न कातिक मही। मगह न जारा पूष घना, माघे मिश्री फागुन चना। घाघ! कहते हैं, चैत (मार्च-अप्रेल) में गुड़, वैशाख (अप्रैल-मई) में तेल, जेठ (मई-जून) में यात्रा, आषाढ़ (जून-जौलाई) में बेल, सावन (जौलाई-अगस्त) में हरे साग, भादों (अगस्त-सितम्बर) में दही, क्वार (सितम्बर-अक्तूबर) में दूध, कार्तिक (अक्तूबर-नवम्बर) में मट्ठा, अगहन (नवम्बर-दिसम्बर) में जीरा, पूस (दिसम्बर-जनवरी) में धनियां, माघ (जनवरी-फरवरी) में मिश्री, फागुन (फरवरी-मार्च) में चने खाना हानिप्रद होता है। 2-जाको मारा चाहिए बिन मारे बिन घाव। वाको यही बताइये घुइया पूरी खाव।। घाघ! कहते हैं, यदि किसी से शत्रुता हो तो उसे अरबी की सब्जी व पूडी खाने की सलाह दो। इसके लगातार सेवन से उसे कब्ज की बीमारी हो जायेगी और वह शीघ्र ही मरने योग्य हो जायेगा। 3- पहिले जागै पहिले सौवे, जो वह सोचे वही होवै। घाघ! कहते हैं, रात्रि मे जल्दी सोने से और प्रातःकाल जल्दी उठने से बुध्दि तीव्र होती है
या देवी सर्वभूतेषु माँ गौरी रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।। माँ! सर्वत्र विराजमान और माँ गौरी के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। हे माँ, मुझे सुख-समृद्धि प्रदान करो। माँ दुर्गाजी की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है। दुर्गापूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है। इनकी शक्ति अमोघ और सद्यः फलदायिनी है। इनकी उपासना से भक्तों के सभी कल्मष धुल जाते हैं, पूर्वसंचित पाप भी विनष्ट हो जाते हैं। भविष्य में पाप-संताप, दैन्य-दुःख उसके पास कभी नहीं जाते। वह सभी प्रकार से पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी हो जाता है। श्वेते वृषे समारुढा श्वेताम्बरधरा शुचिः | महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा || इनका वर्ण पूर्णतः गौर है। इस गौरता की उपमा शंख, चंद्र और कुंद के फूल से दी गई है। इनकी आयु आठ वर्ष की मानी गई है- 'अष्टवर्षा भवेद् गौरी।' इनके समस्त वस्त्र एवं आभूषण आदि भी श्वेत हैं। महागौरी की चार भुजाएँ हैं। इनका वाहन वृषभ है। इनके ऊपर के दाहिने हाथ में अभय मुद्रा और नीचे वाले दाहिने हाथ में त्रिशूल है। ऊपरवाले बाएँ हाथ में डमरू और नीचे के बाएँ
कृष्ण के अनंत स्वरूप हैं। अपनी अपनी मूल प्रकृति के अनुसार भारत की हर भाषा, हर बोली, हर सांस्कृतिक-समूह, हर उपासना पद्धति, हर प्रान्त-जनपद ने कृष्ण को बारम्बार सुमिरा है। हर दर्शन परम्परा, हर एक आयातित निर्यातित विचारधारा ने कृष्ण को येन केन प्रकारेण भजा है। अद्वैत, द्वैत, द्वैताद्वैत हो या आधुनिक लेफ्टिस्म, फेमिनिज्म़ जैसे वाद। कृष्ण का संक्रामक आकर्षण सबको है। शांकर दार्शनिकों को लुभाता कृष्ण-काली ऐक्य हो या राधा-कृष्ण अद्वैत हो। तनिक स्त्रैण सौंदर्य वाले, तीन माताओं वाले सौभाग्यशाली त्रयम्बक 'मम्मास् ब्वाय' मातृशक्तियों को लुभाते हैं। तो एंटी इस्टेब्लिशमैंट प्रकृति वालों को इन्द्र, वरुण, कुबेर, अग्नि, ब्रह्मा, काम, नाग का मानमर्दन करने वाले क्रांतिकारी देवदमन श्रीकृष्ण पसंद आते हैं। नागरों को द्वारिकाधीश, ग्राम्यों को गोकुल का लल्ला, बौद्धिकों को गीता-गीतकार, प्रेमियों को राधावल्लभ, नीतिज्ञों को महाभारत-सूत्रधार पसंद हैं। संगीत-रस मर्मज्ञ वंशी पर मोहित हैं, टैगोर कह चुके 'तोमार वांशि आमार प्राणे बेजे छे'। मल्ल योद्धा को चाणूर-मुष्टिक मर्दनम् पर आसक्ति है। और सुकुमारि