निवेदन और अर्पण यह दोनों दान नहीं कहलाते
जीव प्रभु का अंश है। अंश को अंशी की सेवा करनी चाहिये। जीव को सभी वस्तु प्रभु को समर्पित कर प्रसादी के रूप में उपयोग में लेना चाहिए।
निवेदन, दान और अर्पण इन तीनो शब्दों का अर्थ लगभग लगभग एक है फिर भी तीनों में भिन्नता है। किसी वस्तु को प्रभु का नाम लेकर कि यह वस्तु आपकी है यह प्रभु को बताना निवेदन है।
धन तथा दूसरे पदार्थों का विधिपूर्वक स्वयं की सत्ता छोड़कर दूसरों को देना दान कहलाता है। स्वामी को भोग लगाने योग्य प्रथम निवेदन की हुई वस्तु स्वामी को अर्पण करना उसे समर्पण कहा जाता है। दान की हुई वस्तु स्वयं के काम में नहीं आवे परंतु निवेदन की हुई वस्तु स्वामी के अर्पण के बाद प्रभु की प्रसादी सेवक के उपयोग में आती है। निवेदन और अर्पण यह दोनों दान नहीं कहलाते हैं।