विद्यालय संचालकों के एजेंट के रूप में काम कर रहे हैं तथाकथित बड़े अखबार


कोरोना काल में लॉकडाउन के कारण देश और देशवासी भयंकर आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं खासकर ऐसे लोग जो प्राइवेट नौकरी या निजी काम कर रहे थे। लॉकडाउन में सिर्फ आवश्यक सेवाओं से जुड़ी चीजें ही खुली रही। अभी तक ऐसे बहुत से व्यवसाय हैं जो नहीं खोले गए हैं और उन व्यवसाय या संस्थानों से जुड़े लोग भुखमरी के कगार पर हैं। बंद पड़े संस्थानों में शिक्षण संस्थान भी हैं जिसे 21 सितम्बर से खोलने की तैयारी चल रही है।  और इसको लेकर विद्यालय से ज्यादा तथाकथित बड़े अखबार उत्साहित हैं। भारत सरकार द्वारा जब से यह बात कही गई कि कक्षा 9 से 12 वीं तक के विद्यार्थियों के लिए 21 सितम्बर से विद्यालय खोले जा सकते हैं बस शर्त यह है कि विद्यालय को विद्यार्थियों के अभिभावकों से लिखित अनुमति लेनी पड़ेगी , तब से विद्यालय संचालक तो उत्साहित हैं हीं साथ में तथाकथित बड़े अखबार भी उत्साहित दिख रहे हैं। 


कई दिनों से मैं देख रहा हूँ और आप सभी ने देखा होगा तथाकथित बड़े अखबार रोज अपने सिटी पेज पर विद्यालय संचालकों का इंटरव्यू छापते हैं और लिखते हैं "हम तो तैयार है बस सरकारी आदेश का इंतज़ार है"। मान लीजिये विद्यालय परिसर में बच्चे को कोरोना से कोई भी छति हुई तो बच्चा वापस कौन देगा विद्यालय या तथाकथित बड़े अखबार। तथाकथित बड़े अख़बारों को ज्यादा पढ़ा जाता है और इन पर विश्वास भी लोगों का ज्यादा है जिसका गलत फायदा अब ये तथाकथित बड़े अखबार वाले उठाने लगे हैं। 


कोरोना के कारण बंद पड़े विद्यालय को फीस नहीं मिल रहा है जिसके कारण विद्यालय संचालक ज्यादा परेशान है। अभिभावकों का कहना है कि बंद पड़े विद्यालय में जब हमारा बच्चा गया नहीं तो हम शिक्षण शुल्क के अलावा अतिरिक्त शुल्क क्यों दें। अभिभावक व्यक्तिगत व विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से सरकार से लगातार मांग कर रहे हैं कि सरकार कोरोना काल का कक्षा के हिसाब से एक फीस तय करे , लेकिन अभी तक सरकार ने अभिभावकों की बातों / मांगों को तव्वजो नहीं दिया है।


21 सितम्बर से विद्यालय खुलने की खबर से तथाकथित बड़े अखबार विद्यालय संचालकों का घूम - घूमकर इंटरव्यू ले रहे हैं और ऐसा दिखाने की कोशिश कर रहे हैं जैसे कि विद्यालय संचालक विद्यालय को बच्चों के लिए स्वर्ग जैसा सजा देंगे , कोरोना विद्यालय में बच्चे को छू नहीं सकेगा। विद्यालय संचालकों से की गई बातचीत को सही ठहराने के लिए पता नहीं कहाँ से विद्यालय जाने को अतिउत्साहित बच्चे भी ढूंढ लेते हैं और बच्चे को जल्द से जल्द विद्यालय भेजने को आतुर अभिभावक को भी खोज लेते हैं और समाज को यह परोसते हैं कि बाँकी सब ठीक है। 


लेकिन इन तथाकथित बड़े अखबारों ने कभी भी अवैध फीस को मुद्दा नहीं बनाया , विद्यालय संचालकों द्वारा शासनादेश नहीं मानने को इन तथाकथित बड़े अखबारों ने कभी मुद्दा नहीं बनने दिया। क्यों ? फीस की वजह से सैकड़ों बच्चे आज भी ऑनलाइन शिक्षा से बंचित है जिसको इन्होने मुद्दा नहीं बनाया ? विद्यालय खुलने की स्थिति में विद्यालय मास्क , सेनिटाइज़र आदि बच्चों को बेचेंगे या नहीं इस बारे में विद्यालय संचालकों ने नहीं पूछा क्यों ? क्या ये तथाकथित बड़े अखबार विद्यालय संचालकों के एजेंट के रूप में काम कर रहे हैं ?इनको पढ़ने के बाद तो यही लगता है जैसे इन्हे आमआदमी की समस्याओं से कोई सरोकार ही नहीं है। मेरे संपर्क में 3 से 4 सौ अभिभावक हैं जो बताते हैं कि जब तक वैक्सीन ना बन जाय और बच्चों को ना लगवा दूँ या कोरोना जब तक नहीं खत्म हो जाता है तब तक सरकार को चाहिए कि विद्यालय ना खुले। जब बड़े नहीं समझ पा रहे हैं और कोरोना के चपेट में आ जा रहे हैं तो बच्चों को कैसे विद्यालय सुरक्षित रख सकता है ? ऐसे में ये तथाकथित बड़े अखबार कहाँ से अतिआतुर बच्चे और अभिभावक ढूंढ़ लेते हैं पता नहीं। 


अखबार समाज का आइना होता है। जनजागृति अखबार का काम है , लेकिन आज के समय में तथाकथित बड़े अखबार अपने कर्तव्यों को भूल चुके हैं। असल में ये इतने बड़े हो गए हैं कि इन्हे छोटों के दर्द से मतलब ही नहीं रहा। इन्हे घमंड है कि ये अपने सर्कुलेशन के दम पर माहौल बदल देंगे और वो वही माहौल बदलने का काम कर रहें है। विद्यालय संचालकों को देवता सिद्ध करने पर लगे हैं।


गलती इन तथाकथित बड़े अखबारों का नहीं है असल में गलती समाज की है समाज जो देखना और सुनना पसंद करता वही ये तथाकथित बड़े अखबार परोसते हैं।  


(जितेन्द्र झा) 


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