देवी - देवता को पकरे तब धुकुर-पुकुर न करै


चित्र - परमहंस राममंगलदास जी महाराज


देवी -देवता को पकरे तब धुकुर-पुकुर न करै - (वे) सहायता तब नहीं करते।


मृत्यु या जानलेवा बीमारी के अलावा अधिकतर समस्याओं का हल समय आने पर मिल ही जाता है। फिर भी हर सामान्य मनुष्य की तरह, महाराज जी के कई भक्त अपने जीवन में कोई ना कोई लड़ाई लड़ रहे हैं फिर चाहे वो शारीरिक हो, मानसिक हो, पारिवारिक हो या आर्थिक हो इत्यादि। ऐसे में उनका चिंतित होना स्वाभाविक है। महाराज जी हमें ऐसे स्थिति से कम से कम प्रभावित होने का मार्ग बता रहे हैं।


हाँ इसमें भी कोई अतिशयोक्ती नहीं है की जो सामान्य लोग (जो साधक नहीं हैं) कठिनाई के दौर से गुज़र चुके हैं या गुज़र रहे हैं, वे इस बात को समझ सकते हैं की महाराज जी के इस उपदेश पर चलना इतना आसान नहीं है। लेकिन लगन के साथ प्रयत्न (कर्म) करने से संभव भी है।


ये शरीर जो परमात्मा की ही दिया हुआ है, इसके अंदर नकारात्मक ऊर्जा और सकारात्मक ऊर्जा दोनों ही होती हैं और दुर्भाग्यवश नकारात्मक ऊर्जा की ओर हमारे शरीर का स्वतः आकर्षित होना उसकी प्रकृति में है। संकट के समय या वैसे भी, हम ऐसी बातें सोंचने लगते हैं जिसका कोई आधार ही नहीं होता। और फिर निराशा, अवसाद और ना जाने क्या -क्या ….


संभवतः महाराज जी हमें यहाँ पर समझाने की कोशिश का रहे हैं की यदि हमें उस परम आत्मा पर विश्वास है तो ये मान के चलें की ये जो बुरे -बुरे विचार आ रहे हैं ये फलीभूत होंगे ही नहीं। यदि हम कभी विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे की हमारे अधिकांश नकारात्मक विचार जो हमने साल भर पहले, 6 महीने पहले या उससे भी कम अवधि में सोचे थे वो अंततः फलीभूत हुए ही नहीं हैं।


हमने व्यर्थ ही उसके बाद का समय चिंता में बिता दिया, धुकुर -पुकुर (अविश्वास) करके … जैसे महाराज जी कहते हैं। कभी -कभी ऐसी निराधार चिंताओं में हम अपने स्वस्थ को भी जाने -अनजाने में हानि पहुंचा जाते हैं। इसलिए हम ऐसी परिस्थित से बच भी सकते थे -उन विचारों को तभी नकार कर।


महाराज जी ने अपने मार्गदर्शन से हमें सिखाया है की कैसे हम केवल - अपने सच्चे भावों से (ऊपर की या दिखावटी भक्ति से नहीं), उस परम आत्मा में अपना विश्वास दृढ़ कर सकते हैं (जो हमारे इष्ट भी हो सकते हैं या कोई भी देवी -देवता जिन्हें हम मानते हों)। इस बात को भी अपने आप को निरंतर याद दिलाते रहना है की हम महाराज के हुकुम से हैं, उनके संरक्षण में हैं इसलिए अंततः हमारा अनर्थ तो हो ही नहीं सकता।


वो परम आत्मा किसी का प्रारब्ध तो नहीं बदलता परन्तु उसमें हमारा विश्वास, हमारे सच्चे भाव, उस प्रारब्ध का सामना करने की सहनशक्ति देते हैं। सच्चे भाव समर्पण से आसानी से आते हैं।


और गहरा विश्लेषण करने पर हम प्रायः पाएंगे की संकट में हमारी स्थिति और भी बुरी हो सकती थी लेकिन हुई नहीं ….


संभवतः इसलिए क्योंकि उस परम आत्मा ने, महाराज के आशीर्वाद के साथ हमारी हालत इतनी बुरी नहीं होने दी -जितनी हो सकती थी। तो उनकी कृपा से ऐसी परिस्थितिओं में हमारे बुरे विचार जो अब तक फलीभूत नहीं हुए -तो वो आगे भी नहीं होंगे। ये दोनों कुछ ना कुछ लीला करके, ना सिर्फ हमारा बुरा होने से बचाएंगे बल्कि इसी स्थिति से निकालेंगे भी।


बस ऐसा होने के लिए: हमें कर्म करते रहना है और उस परम आत्मा में, महाराज जी अपना विश्वास बनाए रखना है- उसे डगमगाने से बचाना है या जैसे महाराज जे कहते हैं, धुकुर-पुकुर के क्षणों को -अपने विश्वास की शक्ति से नकारना है । और सही समय आने पर सब ठीक हो जाएगा।


हाँ यदि हम अपना प्रारब्ध अच्छा चाहते हैं, जीवन में संकट की स्थितियां कम से कम चाहते हैं तो महाराज जी उपदेशों पर चलने की ईमानदार कोशिश तो करनी ही पड़ेगी। मुख्य उपदेशों पर तो चलना ही होगा। विश्वास करें ये करना कठिन नहीं है (इस सन्दर्भ में कोई प्रश्न हो तो निसंकोच पूछें -महाराज जी चाहा तो उसका उत्तर मिलना संभव है)।


याद रखें - जहाँ भय है वहां विश्वास का वास कठिन है और जहाँ विश्वास है वहां पर भय बहुत देर तक टिक ही नहीं सकता।


महाराज जी सबका भला करें।


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