ज्ञानरूपी प्रकाश ही अन्धकाररूपी अज्ञानता को जड़ से मिटाने का एकमात्र उपाय है


जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय । प्रेम गली अति साँकरी, ता मे दो न समाय ॥


हमारे अंदर अहंकार अनेकों प्रकार से वास कर सकता है - धन का, रूप का, ज्ञान का, बल का, जाति का, अपने ओहदे का और कुछ नहीं तो अपने आप को ईश्वर या गुरु का बहुत बड़ा भक्त मानने का इत्यादि।


कबीर दास जी कहते हैं जब तक मुझमे "मैं" था, अहंकार था -तब तक मैं गुरु को अपने अन्दर स्थान नहीं दे पाया …. क्योंकि ये अहंकार रूपी पर्दा बीच में आ गया है। 


कबीर दास जी आगे कहते हैं की अब जब मैंने अपने अहंकार पर शमन (नियंत्रण / Control) करना सीख लिया है तो मैं और मेरे गुरु के बीच कोई अंतर नहीं रह गया है अर्थात मैंने अपने गुरु के दिखाए मार्ग पर चलना आरम्भ कर दिया है। उनके लिए मेरे भीतर समर्पण की भावना है। मेरे भाव अपने गुरु के लिए सच्चे हो गए हैं। और मेरा जीवन सुखमय हो गया है - किसी भी परिस्थितियों में। कुछ वैसा ही जैसे हम ये मान के चलें कि हमारा वर्तमान जैसा भी है, वो है हमारे महाराज जी के हुकुम से ही।  


निस्वार्थ प्रेम की गली बहुत ही संकरी है, इसलिए हमारे अंदर मैं और गुरु के लिए सच्ची श्रद्धा का एक साथ होना संभव नहीं हैं।


जैसे हमारे महाराज जी कहते हैं की अहंकार हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है- हमारे सुख का, हमारी शांति का !! आज के दौर में हमारे महाराज जी के सन्दर्भ में उनके प्रति हमारी श्रद्धा ये होगी हम उनके उपदेशों पर चलने की एक ईमानदार कोशिश करें ।


महाराज जी सबका भला करें।


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