किसी भी चीज का अत्यधिक मोह भविष्य में होने वाले नुकसान की तरफ पहला कदम होता है


माया क्या है ?


संभवतः जो है उसके ना होने का और जो नहीं है उसके होने का मनोभाव …… संक्षेप में माया कहीं ना कहीं भ्रम होती है, परन्तु कृति उस सर्वशक्तिशाली परम आत्मा की ही है जो हमें कर्म करने के लिए प्रेरित भी करती है - अब ये कर्म कैसे होंगे ये हमारे ऊपर निर्भर करता है !!


हम लोग प्रायः माया में बहकर कभी -कभी कुछ ऐसे कर्म कर जाते हैं जिनकी आवश्यकता नहीं होती है, टाले जा सकते थे।
उदाहरण के लिए अपने किसी ना किसी अहंकार के वश में आकर हम अपने- परायों को दुःख दे जाते हैं, कभी- कभी तो इतना की उनकी आंख में आंसू आ जाएं, प्रायः तब, जब हमारा अच्छा समय चल रहा होता है। उस समय हम ये भूल जाते हैं की बदलाव हमारे जीवन का परम सत्य और हमारा वर्तमान जैसा भी है, उसे बदलना ही है।


जब समय बदलता है और हमें हमारे कर्मों का फल मिलता है तो वो परम आत्मा कभी -कभी हमारी आँखों उसे अधिक आंसू दे देता है जितना की हमने दूसरे को दिया होता है। उसी तरह बुरे समय में या वैसे भी, माया में बहकर हम ऐसे - ऐसे नकारात्मक विचारों की कल्पना करने लगते हैं जिनका कोई आधार ही नहीं होता, और अंततः ऐसे नकारात्मक विचार फलीभूत होते भी नहीं हैं। परन्तु उन क्षणों जब हम नकारात्मक विचारों की कल्पना कर रहे होते हैं तब हम भयभीत हो जाते हैं, हमें दुःख पहुँचता है, और दुर्भाग्यवश कभी -कभी अवसाद भी। ऐसी परिश्थितियों में कभी -कभी हम अपनों को भी दुःख देते हैं जिनका फल हमें आगे -पीछे और भी दुःख देता है। अच्छा फिर मोह एक ऐसी चीज़ है जिसमें बहकर अंततः हम अपना ही नुकसान करते हैं।


यदि संतान का अधिक मोह हो जाय तो उसके भविष्य का नुकसान कर देते हैं। संतान से अधिक मोह से जाग्रत अपेक्षाएं पूरी ना होने पर आगे- पीछे स्वयं को भी दुःख उठाना पड़ता है। खाना -पीना जीवन की आवश्यकता है परन्तु जब खाने- पीने से मोह हो जाए तो स्वास्थ की समस्याएं आरम्भ हो जाती है जो समय रहते नियंत्रित ना करने पर बहुत पीड़ा दे सकती हैं। स्वयं से प्रेम करना अच्छी बात है लेकिन जब स्वयं से मोह होने लगता है तो हम दूसरों से तुलना करते हुए ईर्ष्या करने लगते हैं और इससे अपना ही नुकसान होता है।


शरीर से मोह भी आगे -पीछे पीड़ा ही देता है क्योंकि कुछ लोग इस भ्रम में जीते हैं की शरीर को तो कभी ढलना ही नहीं है और यदि धन- संपत्ति से मोह हो जाए तब तो हम अपने साथ -साथ अपने -परायों को भी दुःख देते हैं। तो फिर इस माया -मोह में कम से कम बहने का (तदनुसार अपना कम से कम नुकसान कराने का) कोई तो उपाय तो उपाय होगा !! निश्चित रूप से है और वो उपाय है- गुरु की शरण में जाने का, उनका नाम लेने का, उनकी भक्ति करने का, उनको नित्य याद करने का और सबसे महत्वपूर्ण उनके उपदेशों पर चलने की ईमानदार कोशिश करने का। महाराज जी की आरती के इस भाग में ये भाव बहुत सुन्दर तरह से व्यक्त किये गए हैं: माया -मोह नदी जल, जीव बहे सारे। नाम जहाज बिठाकर, गुरु पल में तारे।


हममें से अधिकतर लोग कर्म प्रायः अचेतन अवस्था में करते हैं, या ये कहें की बिना सोचे- समझे करते हैं, विशेषकर जब हम माया -मोह में बह रहे होते हैं। जब महाराज जी की भक्ति में हमारे भाव सच्चे होने लगेंगे तो हम अपने कर्म सचेत रहकर करेंगे, कर्म करने के पहले एक बार सोचेंगे की जो कर्म हम करने जा रहे हैं वो क्यों कर रहे हैं ?? ऐसा करने से अपने कर्मों के संभावित परिणाम का बोध हो जाएगा और फिर, माया के बीच रहकर भी,बहुत संभव है की हम बुरे कर्म, कम से कम करेंगे। फिर तो हमारे जीवन में दुःख -पीड़ा का कम से कम होना भी संभव है। जीवन में सुख होगा, शांति होगी।


महाराज जी सबका भला करें!


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