क्रोध से विवेक का हरण हो जाता है जिससे बुद्धि का विकास भी कुंठित होने लगता है


 

महाराज जी भक्तों को उपदेश दे रहे हैं कि:

 

खराब शब्दों के रूप काले होते हैं और नंगे होते हैं। जहाँ तुम्हारे मुँह से निकले कि रोकर कहते हैं, तुम अनमोल नर शरीर पाकर अपने मुँह से हमें ऐसा बनाकर निकाला। श्राप देकर अन्तर होते हैं। शुद्ध शब्द सिंगार किहे बड़े सुन्दर होते हैं। जहाँ मुँह से निकले तो हँसते हुऐ आशीर्वाद देते हुए अन्तर होते हैं। यह लिखाया गया है कि अशुद्ध शब्द जो साधक सुनता है, वह उसके अन्दर प्रवेश हो जाते हैं, और उसकी बुद्धि उलट देते हैं। दिमाग खराब कर देते हैं -क्योंकि वह साधक कच्चा है।

 

अगर साधक सिद्ध हो तो उसके अन्दर नहीं जा सकते। शुद्ध शब्द सुनने से साधक के हृदय में बल बढ़ता है। वे सब बड़े पवित्र हैं। अन्दर पहुँचकर अपना प्रभाव जमा देते हैं। नीचे गिरने नहीं देते। इस पर बहुत लिखाया गया है। जो इतने पर अमल करै तो सुधर जाय। जहाँ अशुद्ध शब्द कोई कहता हो, वहाँ से साधक उठ जाय नहीं तो साधक गिर जायेगा। अभी उसके आँखी कान नहीं खुले हैं। वह दूसरे से सुनी बात कहेगा।

 

महाराज जी ने यहाँ पर एक सच्चे साधक के आचरण की व्याख्या बहुत ही सरल शब्दों में की है, विशेषकर साधक की वाणी से सम्बंधित आचरण के बारे में। परन्तु यहाँ पर उनके लिए भी बहुत महत्वपूर्ण शिक्षा महाराज जी दे रहे हैं जो साधक नहीं हैं, केवल महाराज जी के भक्त हैं पर अपने जीवन में सुख चाहते हैं, शांति चाहते हैं। अपने ख़राब शब्दों से, अपनी वाणी से अपने -परायों को दुःख ना देना - ये तो महाराज जी के मुख्य उपदेशों में से है। इस बारे में हम प्रायः चर्चा भी करते रहते हैं।

 

जिसने दूसरों के कटु वचन झेले हैं, विशेषकर अपनों के, उन्हें उसकी पीड़ा का एहसास भी ज़रूर हुआ होगा। ऐसे ख़राब शब्द दूसरों को बोलने का फल, वो सर्वशक्तिशाली परम आत्मा अपने निर्धारित समय से, अपने ही बनाये रूप में जब हमें देता है तो हमें तकलीफ हो सकती है- कभी कभी उससे कहीं अधिक जितनी हम वर्तमान में दूसरों को दे रहे हैं। हमें हमारे सब कर्मों के फल मिलता ही मिलता है। इसीलिए महाराज जी हमें इस बारे में हमें अनेकों बार सावधान रहने को कहते हैं। ऐसे करने से बचने को कहते हैं।

 

यदि दूसरों के ख़राब शब्दों का हमने उसको जवाब दिया है (जैसा की प्रायः होता है), तो निसंदेह ये तब होता जब हम क्रोधित होते है। परायों के साथ तो कभी कभी ख़राब शब्दों के बाद हम लोग अपने हाथ -पैरों से भी बात करने लगते हैं। अर्थात क्रोध विवेक का हरण कर लेता है। बुद्धि कुंठित हो जाती है। क्रोध होने पर समझ में नहीं आता है की सही क्या है और गलत क्या है ??? इसके उपरांत तो हम और भी बुरे कर्म करते हैं जिनका फल हमारे लिए दुःख ही लाता है।

 

बाद में कभी कभी हमारा विवेक हमें ये चेता भी देता है की दूसरे के ख़राब शब्दों को यदि हम अपने खराब शब्दों से उस समय जवाब ना देते, बात बहुत आगे ना बढ़ती तो अच्छा होता। वैसे तो ख़राब शब्दों के उपयोग का अंत तो ख़राब ही होता है। लेकिन महाराज जी के भक्तों का इसी में कल्याण है की जब उनके साथ कोई ख़राब शब्दों के उपयोग करे, तो वे एक क्षण ठहरकर सोचें की, जो वो कह रहा है क्या वो सत्य है? यदि है, तो हमारा विवेक (ना की बुद्धि), हमे एक बार संकेत अवश्य करेगा की ऐसी परिस्थितियों में हमारा क्रोधित होना, जवाब में ख़राब शब्दों का उपयोग बिलकुल ही गलत है। बुद्धि तो हमें तर्क की ओर ले जाती है जो ऐसे स्थितियों में प्रायः हमारा हित में नहीं होता है और यदि दूसरा खराब शब्दों का उपयोग करके हमसे जो कह रहा/रही है वो सत्य नहीं है तो ऐसे शब्दों की उपेक्षा (ignore) करना उत्तम है।

 

यदि ये संभव नहीं हो पा रहा हो तो अपने अहं को नियंत्रित करके, कुछ समय बाद स्पष्टीकरण करने में हो हमारा विवेक है। ऐसा अपनों के साथ करने ना तो बहुत ही अच्छा होता है। यदि हमने महाराज जी को सच्ची भक्ति करने का प्रयत्न किया है तो ये संभव है। उनके लिए हमारे सच्चे भाव हमें विवेकपूर्ण आचरण करने में बहुत सहायता दे सकते हैं और जब हम अच्छे शब्दों के प्रयोग करते हैं, दूसरों की प्रशंसा करते है (झूठी नहीं !!), विशेषकर तब, जब दूसरों के अच्छे कर्म के फलस्वरूप हमारा कल्याण होता है. हमारे समाज, हमारे मातृभूमि का भला होता हो - तो हमें भी अच्छा लगता है। दूसरों की ख़ुशी में जो खुश रहते हैं, रहने की कोशिश करते हैं, वे खुद भी खुश रहते हैं। कृतज्ञता की अनुभूति हमारे जीवन में शांति लाती है - ये निश्चित है।

महाराज जी सबका भला करें।

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