कुछ लोगों का धर्म अफीम की तरह होता है


चर्चा - धर्मान्धता और उपचार


प्रस्तुत विषय मे राजनैतिक और धार्मिक दोनों सन्दर्भ परस्पर अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं इसलिए मैं इस विषय पर लिखना नही चाह रहा था किन्तु सोशल मीडिया में चहुँ ओर व्याप्त तर्को, बहसों, अक्षेपो आदि के दृष्टिगत मैंने अपना मत आप मित्रो से साझा करने एवं आप मित्रो के सुझावों को आमंत्रित करने का विचार बनाया है। चर्चा का बिंदु फ्रांस और वहां हुई हिंसक घटना से सम्बंधित है। अराजकता, अपराध और आंतरिक चुनौतियों से सम्पूर्ण भारतीय समाज ग्रसित है। ऐसे में देशहित के दृष्टिगत अद्यतन परिवेश के संदर्भ में इसके मूल एवं उपचार पर विचार करना आवश्यक हो जाता है।


यदि आप घोषित रूप से एक धार्मिक देश मे है अर्थात वह देश जो हिन्दू राष्ट्र, मुस्लिम राष्ट्र, ईसाई राष्ट्र इत्यादि में से किसी किसी एक धर्म के रूप में उनके लिए घोषित देश है। जैसे पाकिस्तान इस्लामिक देश के रूप में अपने संवैधानक से घोषित है। तब अपने धर्मावलम्बियों के हितार्थ बतौर राष्ट्राध्यक्ष किसी अन्य धर्म के सम्बंध में तल्ख टिप्पणियां प्रकट हो सकती है। वहां कई अवसरों पर धार्मिक आधार पर तुलनात्मक रूप से नीतियां भी बनाई जा सकती है। यदि आवश्यक हो तो शेष धर्मावलम्बियों के बाबत कानून बनाकर उन्हें सीमित और नियंत्रित किया जा सकता है।


यदि आप सेकुलर देश है अर्थात आप धार्मिक आधार पर घोषित देश नही है बल्कि विभिन्न धर्मों/ पन्थो/ विशवास के लोगो को समान अधिकार, समान स्वतंत्रता, समान लाभ की गारन्टी देते हैं तो बतौर राष्ट्राध्यक्ष अपने लोकल्याणकारी स्वरूप में किसी घटना के सापेक्ष सम्बन्धित को दंडित कर सकते हैं, विधिक कार्यवाही कर सकते है, अराजकता से निपटने का विधिक मार्ग तलाश सकते है, किसी वर्ग को नियंत्रित करने का कानून भी बना सकते है किंतु- क्या तब आप सार्वजनिक मंच पर खड़े होकर आधिकारिक रूप से धर्म विशेष को आतंकवादी और उनके धर्मगुरु को आतंक का पर्याय घोषित कर सकते हैं? क्या ऐसा घोषित करना उचित होगा? क्या ऐसा करना समूचे देश की घोषणा नही मानी जाएगी? क्या तब दुनियां भर में फैले वे तमाम धर्मावलंबी आहत होकर आपके विरुध्द एकजुट नही हो जाएंगे? इसका उत्तर स्वतः मनन करने योग्य है। किसी विचारक ने कहा था कि लोगों का धर्म अफीम की तरह होता है।


किसी समाज में वर्ग/ धर्म/ पन्थ/ विशवास विशेष के कतिपय लोग यदि चंद नासमझों की नासमझी का लाभ लेकर, अपने पद और शक्तियों का अनावश्यक लाभ लेकर धार्मिक प्राविधानों की मनगढ़ंत व्याख्या के द्वारा अपना निजी एजेंडा पूरा करने का कार्य करते हो तब उनके विरुध्द आंदोलन करना उस वर्ग के लोगो का कर्तव्य बन जाता है। जब आंखों से यह सब देखकर भी लोग मौन रहते हो तब आवश्यक स्पष्टीकरण के अभाव में जनसामान्य द्वारा यह मान लिया जाता है कि अमुक कार्य विपरीत होते हुए भी जायज ठहराया जा रहा है तथा इसे उस कुटुंब को ओर से मौन स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है। यह विचार जन्म लेना किसी भी देश की एकता, अखण्डता, और सम्प्रभुता के हित मे नही होता है।


आखिर कौन सा ऐसा वर्ग नही है जहां अपराधी नही होते? कौन सा ऐसा समाज है जहां अराजकता नही है? कौन सा ऐसा देश है जो आतंकवाद से ग्रसित नही है? कौन सा ऐसा वर्ग है जहां कट्टर पंथी नही है? कौन सा ऐसा धर्म है जो लोगो के आचरण व्यवहार जीवन और स्तर को ऊपर उठाने का पर्याय नही है? तो फिर लोगो का गुस्सा सिर्फ एक वर्ग के विरुद्ध ही क्यों? यह बात पुनर्विचार करने योग्य है। सम्भवतः इसिलिये कि यह आचरण लगभग हर जगह न्यूनाधिक्य रूप में फैला हुआ है। कहीं कम है तो कहीं ज्यादा। अधिक मात्रा का भार अधिक होने के कारण लोगो का बरबस ध्यान आकृष्ट होना प्राकृतिक स्वभाव है।


मेरी समझ से से यही कुछ प्रमुख कारण है जिनसे प्रेरित होकर उन्हें मंच से घोषित तौर पर धार्मिक आतंकवाद बोलना पड़ा। यहां स्वभाविक सा प्रश्न उतपन्न होता है कि आखिर इसका उपचार क्या हो? मेरी राय में इसका उपचार यही है कि सभी वर्ग अपने अपने वर्ग(धर्म) के लिए सुधार आंदोलन चलाएं अन्यथा विभिन्न देशों को धार्मिक राष्ट्र घोषित करना अथवा उपद्रवी वर्गों को बाहर का मार्ग दिखाना अथवा उन्हें प्रतिबंधित करना अथवा उनसे सख्ती से निपटना ही एकमात्र विकल्प शेष रह जाएगा।


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