सच्ची भक्ति से तात्पर्य अपने गुरु को "प्रणाम" करने से नहीं बल्कि उनका "सम्मान" करने से है
भगवान के यहाँ खाता में नाम लिखा कर फिर गैर हाजिर करना,भजन में आलस्य- प्रमाद करना यह भक्ति नहीं है। भजन नियमित होना चाहिए। संभवतः महाराज जी यहाँ पर किसी को समझा रहे हैं की एक बार हमारा मन अगर ईश्वर में लग जाये, भक्ति का महत्त्व समझ में आ जाये तो भजन/ भक्ति नियमित रूप से करना चाहिए - उसमें आलस्य का कोई स्थान नहीं है। एक दिन भजन करना, फिर कुछ दिन नहीं करना, फिर शुरू कर देना - ये भक्ति नहीं है। ऐसा करने से हमें कोई लाभ भी नहीं मिलता।
हाँ कोई मज़बूरी हो या स्वस्थ्य समस्या हो तो ऐसी स्थिति में महाराज जी ने परमात्मा को याद करने के बहुत सरल से उपाय भी बताये है जैसे मल-मूत्र से निपटने के बाद, कपडे बदल कर या फिर लेटे-लेटे ही लेकिन याद करना चाहिए।
महत्वपूर्ण बात ये है की हमें नित्य रूप से सच्चे भाव के साथ परमात्मा को याद करना है। या अपने गुरु को प्रणाम करना है बस। भक्ति हमें अपने लिए करना है, दूसरों को दिखाने के लिए नहीं।
जैसे महाराज जी ने हमें समझाया है, भक्ति के तार अर्थात हमारे भाव उस परम- आत्मा और हमारे बीच में ही होते हैं। या हमारे और हमारे गुरु के बीच होते हैं और इस "भाव" रूपी बेतार के तार से, उस परम- आत्मा के दरबार में क्षण-क्षण का समाचार पहुँचता रहता है।
या हमारे गुरुदेव की भक्ति में उनके लिए हमारे सच्चे भाव ही पर्याप्त हैं। जब सच्चे भाव होंगे तो हम उनके वचनों पर, उनके उपदेशों पर चलने की ईमानदार कोशिश अपने -आप ही करेंगे।