स्वार्थ से ऊपर उठकर किया गया प्रत्येक कर्म "धर्म" है


धर्म का अर्थ कोई कर्म विशेष नहीं है अपितु आपके द्वारा संपन्न प्रत्येक वह कर्म धर्म है, जो अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर परहित की भावना से किया जाए।


धर्म केवल मंदिर में संपन्न अनुष्ठान का नाम भर ही नहीं है अपितु किसी भूखे प्राणी या जीव के लिए यथायोग्य आहार का दान भी धर्म है। केवल अपने आराध्य पर दूध चढ़ाने से ही धर्म संपन्न नहीं हो जाता अपितु किसी प्यासे को पानी को पिलाकर भी धर्म का निर्वहन हो जाता है।


धर्म को अगर सरल शब्दों में कहें तो वह ये कि अपने कर्तव्य का पूर्ण निष्ठा, पूर्ण समर्पण व पूर्ण पवित्रता के साथ निर्वहन भी धर्म है। धर्म का सम्बन्ध बाहर की क्रिया विशेष से नहीं अपितु भीतर की शुचिता से है।


Popular posts from this blog

स्वस्थ जीवन मंत्र : चैते गुड़ बैसाखे तेल, जेठ में पंथ आषाढ़ में बेल

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ गौरी रूपेण संस्थिता।  नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

!!कर्षति आकर्षति इति कृष्णः!! कृष्ण को समझना है तो जरूर पढ़ें