अहंकार ही प्रायः क्रोध को जन्म देता है


महाराज जी कहते हैं की हम लोग मान -अपमान, क्रोध - अहंकार, अपने -परायों के साथ बैर का भाव जैसे अन्य विकारों के वशीभूत होकर कभी -कभी ऐसे बुरे कर्म करते हैं जिससे बचना संभव था। 

प्रायः हम ऐसे कर्म माया में बह कर भी करते हैं  और यहाँ पर मान -अपमान में बह कर ऐसे कर्म करना जैसे आम सी बात है। 

चलिए मान लेते हैं कि किसी ने हमको बुरा -भला कहा, गाली -गलौज किया, हमारा अपमान किया, तो सामान्यतः हम दूसरे से साथ भी वही करते हैं। अर्थात किसी ने हमें वाणी से दुखी दिया तो प्रायः हम भी उसको अपनी वाणी से दुःख दे देते हैं फिर इस सन्दर्भ में हमारी तीव्रता (!!) कैसी भी रही हो …….. तदुपरांत हमें लगता है की बस - हिसाब बराबर! पर क्या उस परम आत्मा के न्यायलय में भी ऐसी ही न्याय होता है ……संभवतः नहीं। 

सत्य तो यह भी है कि हमारे मन में प्रायः अपने -आप को दूसरों से भिन्न, या ये कहें श्रेष्ठ दिखाने की होड़ में हम अहंकार से ग्रसित हो जाते हैं। इस सारे प्रकरण से अहंकार को दूर रखने की कोशिश करना विवेकपूर्ण है अन्यथा हम अपना अधिक अहित कर लेंगे। अहंकार ही प्रायः क्रोध को भी जन्म देता है।

क्रोध विवेक का हरण करता है। जब क्रोध आता है, गुस्सा आता है तो बुद्धि कुंठित हो जाती है। तब समझ में नहीं आता है की सही क्या है और गलत क्या है, ज्ञान क्या है और अज्ञान क्या है। इंसान वही करता है जो क्रोध के वक़्त आया हुआ आवेग उससे करवाता है। आवेग में उठाया गया कदम, दंड नहीं बल्कि एक अपराध है। और इसका फैसला वो परम आत्मा स्वयं करता है। उसका न्याय तो निराला होता है क्योंकि वो हमारे किस कर्म का कहाँ पर, किस समय और कैसे फल देगा- ये तो वही जानता है तो क्यों ना हम क्रोध कम से कम करने का एक समर्पित प्रयास करें। इस बारे में जाग्रत रहें:

· जिसने हमारा अपमान किया क्या वो हमारा परिचित था ? यदि नहीं तो उसके आरोप लगाने पर हम ये क्यों मान लें की हम वैसे ही हैं। हम स्वयं तो जानते ही हैं ना कि सत्य क्या है ??  तो क्यों ना हम उस अनजान व्यक्ति के उकसावे को, टिपण्णी को नज़रअंदाज़ करने की कोशिश करें, उपेक्षा कर दे, ध्यान ही ना दें।

· और यदि ऐसा करने वाला हमारा कोई प्रियजन है तो उस क्षण में हमारा चुप रहना, संयम दिखाना विवेकपूर्ण है और कुछ समय बीत जाने के बाद हम स्पष्टीकरण कर सकते हैं। क्योंकि ऐसी परिस्थिति में भी हम स्वयं तो जानते ही हैं ना कि सत्य क्या है !!

यदि इसमें कहीं ना कहीं हमारा दोष है तो, दूसरा चाहे हमारा अपरिरिचित हो या कोई प्रियजन हो -महाराज जी के उपदेश अनुसार सर्वप्रथम हमें उससे क्षमा मांगनी चाहिए और भविष्य में ऐसा ना करने का संकल्प भी लेना चाहिए। जैसा की हम लोगों ने ध्यान दिया होगा, कभी -कभी आत्म -सम्मान और अहंकार के बीच की दूरी बहुत कम होती है। आत्म -सम्मान एक आवश्यक गुण है पर अहंकार तो सबसे बड़ा अवगुण है। 

और एक बात और बहुत महत्वपूर्ण है - हमारी जिसके साथ भी बिना कारण या अकस्मात् कहा-सुनी हुई है, फिर चाहे वो अनजान हो या कोई अपना हो - हम महाराज जी के भक्तों को इतना ज्ञान तो है ही कि ये परिस्थिति संभवतः हमारे -उसके बीच किसी पूर्व जन्म के कर्मों का फल है। यदि वर्तमान में हमने विवेक रहित प्रतिक्रिया की, तो इसका तात्पर्य है की हमने इस सिलसिले को और आगे बढ़ा दिया …… अब इसका भी फल भुगतना पड़ेगा। जबकि यदि हम अपने विवेक का उपयोग करते हैं (जैसा हमने ऊपर चर्चा भी की है ) तो हमारे पास इस श्रंखला को समाप्त करने का अवसर भी होता है।

ये सर्वविदित है कि ऐसा करना आसान नहीं होता लेकिन महाराज जी के भक्तों के लिए असंभव भी नहीं होता है। केवल इच्छाशक्ति चाहिए। और ये याद भी रखना है कि जो हम कर रहे हैं उसी में हमारी और हमारे प्रियजनों की भलाई है। हमारा जीवन सुखी होगा और शांति भी आएगी।

महाराज जी के ये अनमोल उपदेश निसंदेह हमें उनके और परत्मात्मा के निकट ले जाने में भी सहायता करते हैं। हमारे चित्त को शांत रखने की भी क्षमता रखते हैं।

अच्छा या बुरा जो भी हमने किया है, वो परम आत्मा हमारे अधिकांश कर्मों का फल वर्तमान जन्म में ही दे देता है। जो बच जाता है वही अगले जन्म में हमारे प्रारब्ध बनकर हमारे साथ जाता है। अतः वर्तमान जन्म में प्रारब्ध की परिस्थितियों को तो नहीं बदला जा सकता परन्तु इस सन्दर्भ हमारी कैसी प्रतिक्रिया रहती है इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है - यदि हम अपने विवेक का उपयोग करेंगे तो हमारा ही कल्याण होगा।

महाराज जी ने भी समय -समय पर हमें याद दिलाया है कि इस जन्म में दुःख अधिक चाहिए या सुख अधिक चाहिए ये बहुत हद तक हमारे ही हाथों में है - हमारे ही कर्मों पर निर्भर करता है।

महाराज जी सबका भला करें।

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