साधू सन्त और मनीषियों का संसार

साधु-संत की अपनी अलग ही दुनिया है। बाहर से सामान्य दिखने वाले इन साधुओं के भी कई नाम व प्रकार होते हैं। कुछ साधु अपने हठयोग के लिए जाने जाते हैं, कुछ अपने संप्रदाय के नाम से। इनका पहनावा तो विचित्र है ही, साथ ही इनकी साधनाएं भी विचित्रताओं से लबरेज होती हैं। साधु-संत अपनी काया को कष्ट देकर ईश साधना में दिन-रात लगे रहते हैं। संत कई तरह की साधनाएं करते हैं, इनमें कुछ प्रमुख साधनाएं इस प्रकार हैं:

दंडी: ये साधु अपने साथ दंड व कमंडल रखते हैं। दंड गेरुआ कपड़े से ढका बांस का एक टुकड़ा होता है। वे किसी धातु की वस्तु को नहीं छूते। वे भिक्षा के लिए दिन में एक ही बार जाते हैं।

अलेस्बिया: यह शब्द आलेख में आता है जो भिक्षा मांगते समय संन्यासी बोलते हैं। वे विशेष प्रकार के आभूषण जैसे-तोरा, छल्ला आदि जो चांदी, पीतल या ताम्बे के बने होते हैं, पहनते हैं। वे अपनी कमर में छोटी-छोटी घंटियां भी बांधते हैं ताकि लोगों का ध्यान इनकी ओर आकर्षित हो।

ऊर्ध्वमुखी: वे साधु अपना पैर ऊपर और सिर नीचे रखते हैं। वे अपने पैरों को किसी पेड़ की शाखा से बांधकर लटकते रहते हैं।

धारेश्वरी: वे संन्यासी जो दिन-रात खड़े रहते हैं वे खड़े-खड़े ही भोजन करते हैं और सोते हैं, ऐसे साधुओं को हठयोगी भी कहा जाता है।

ऊर्ध्वबाहु: वे संन्यासी अपने इष्ट को प्रयत्न करने के लिए अपना एक या दोनों हाथ ऊपर रखते हैं।

नखी: जो साधु लम्बे समय तक अपने नाखूनों को नहीं काटता उसे नखी कहा जाता है। इनके नाखून सामान्य से कई गुणा ज्यादा लम्बे होते हैं।

मौनव्रती: वे साधु मौन रह कर साधना करते हैं। इनको कुछ कहना है तो कागज पर लिख कर देते हैं।

जलसाजीवी: वे साधु सूर्योदय से सूर्यास्त तक किसी नदी या तालाब के पानी में खड़े होकर तपस्या करते हैं।

जलधारा तपसी: वे साधु गड्डा में बैठकर अपने सिर पर घड़ा रखते हैं जिसमें छेद होते हैं। घड़े का पानी छिद्रों से होकर इनके ऊपर रिसता रहता है।

फलहारी: वे साधु सिर्फ फलों पर गुजर-बसर करते हैं, भोजन पर नियंत्रण इनका मुख्य उद्देश्य होता है।

दूधाधारी: वे साधु सिर्फ दूध पीकर गुजारा करते हैं।

अलूना: वे साधु बिना नमक का खाना खाते हैं।

सुस्वर: वे भिक्षा के लिए नारियल से बने पात्र या खप्पर का उपयोग करते हैं और भिक्षाटन के समय सुनिश्चित द्रव्य जलाते हैं।

त्यागी: ये साधु भिक्षा नहीं मांगते जो मिल जाता है उसी पर गुजारा करते हैं।

अबधूतनी: ये महिला संन्यासी होती हैं। माला पहनती हैं और त्रिपुंड बनाती हैं। भिक्षाटन से जीवनयापन करती हैं।

टिकरनाथ: ये साधु भैरव भगवान की पूजा करते हैं और मिट्टी के बने पात्र में भोजन करते हैं।

भोपा: भिक्षाटन के समय अपनी कमर या पैर में घंटियां बांधते हैं, नाचते हैं और भैरव की स्तुति में गीत गाते हैं। इसके अलावा परमहंस, दशनामी नगर, डंगालि, अघोरी, आकाशमुखी, कर लिंगी, औधड़, गुंधार, भूखर, कुरुर, घरबारी संन्यासी, अतुर संन्यासी, मानस संन्यासी, अंत संन्यासी, क्षेत्र संन्यासी, दशनामी घाट और चंद्रवत साधुओं की साधना के प्रकार हैं।

तिलक हिंदू संस्कृति की पहचान माने जाते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं, ये तिलक भी एक या दो प्रकार के नहीं होते हैं, बल्कि 80 से भी ज्यादा प्रकार के होते हैं।

क्या आपको पता है इन साधु-संतो की पहचान उनके तिलक से होती है। भारतीय संस्कृति में तिलक लगाने की परंपरा आज से नहीं, बल्कि प्राचीन काल से चली आ रही है।

यह तिलक हिंदू संस्कृति की पहचान माने जाते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं, ये तिलक भी एक या दो प्रकार के नहीं होते हैं, बल्कि 80 से भी ज्यादा प्रकार के होते हैं। इनमें से सबसे ज्यादा 64 तरह के तिलक वैष्णव साधुओं में लगाए जाते हैं। हिंदू धर्म में जितने भी संतों के मत हैं, पंथ है, संप्रदाय हैं, उन सबके भी अलग-अलग तिलक होते हैं।

शैव:- इस तिलक में ललाट पर चंदन की तिरछी रेखा लगाई जाती है। इसके अलावा त्रिपुंड भी लगाया जाता है। ज्यादातर शैव साधु इसी तरह का तिलक लगाते हैं।

शाक्त:- शक्ति की आराधना करने वाले साधु चंदन या कुंकुम का तिलक ना लगाकर सिंदूर का तिलक लगाते हैं। माना जाता है कि सिंदूर साधक की शक्ति को बढ़ाता है और उसकी उग्रता का प्रतीक भी होता है। जानकारों की मानें तो ज्यादातर आराधक तिलक लगाने के लिए कामाख्या देवी के सिद्ध सिंदूर का इस्तमाल करते हैं।

वैष्णव:- तिलक लगाने के सबसे ज्यादा प्रकार आपको वैष्णवों में मिलेंगे। इनमें करीबन 64 प्रकार के तिलक लगाए जाते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख तिलक निम्न हैं-

1.लालश्री तिलक- इस तरह के तिलक में आसपास चंदन का तिलक लगाकर बीच में कुंकुम या हल्दी से रेखा बनाई जाती है।

2.विष्णुस्वामी तिलक- इस तिलक को लगाने के लिए माथे पर भौहों के बीच दो चौड़ी रेखाएं बनाई जाती हैं।

3.रामानंद तिलक- इस तिलक को लगाने के लिए पहले विष्णुस्वामी तिलक लगाया जाता है, उसके बाद उसके बीच में कुंकुम से खड़ी रेखा बनाई जाती है।

4.श्यामश्री तिलक- कहा जाता है कि इस तिलक को भगवान कृष्ण के उपासक लगाया करते हैं। इस तिलक को लगाने के लिए पहले आसपास गोपीचंदन और बीच में काले रंग की मोटी रेखा लगाई जाती है।

5.अन्य तिलक- इनके अलावा कुछ और प्रमुख तिलक हैं जो कि साधु-संतों द्वारा लगाए जाते हैं। कई साधु-संत भस्म का भी तिलक लगाते हैं।

भारतीय हिंदू साधुओं का एक विशेष पहनावा होता है जो हर साधु का अपना अलग होता है। कुछ साधु केवल सिर पर भस्म लगाते हैं, कुछ कानों में कुंडल पहनते हैं, कुछ माला पहनते हैं और कुछ अघोरियों की तरह बिल्कुल नग्न और सभी चीजों से परहेज करने वाले होते हैं।

माला:- साधु समाज में माला का भी विशेष महत्व है। वैष्णव संप्रदाय में अधिकांश जहां तुलसी की माला पहनते हैं वहीं शैव में रुद्राक्ष की माला का उपयोग होता है। उदासीन में बाध्यता नहीं है। अखाड़ा या उपसंप्रदाय परंपराओं के अनुसार इन मालाओं में भी भिन्नता होती है।

जटा:- कई नागा साधु बड़ी जटा रखते हैं। मोटी-मोटी जटाओं की देखरेख भी काफी जतन से की जाती है। इनमें कोई रुद्राक्ष तो कोई फूलों की माला पहन इन्हें आकर्षक रूप भी देता है।

कमंडल, चिमटा और त्रिशूल:- कुछ साधु-संत कमंडल तो कुछ त्रिशूल या चिमटा साथ रखते हैं। कुछ साधु धातु के तो कुछ लौकी (तुंबे) के कमंडल का उपयोग करते हैं। नागा साधुओं को योद्धा भी माना जाता है। कई साधु शस्त्र के रूप में तलवार, त्रिशूल, फरसा साथ रखते हैं।

तिलक:- साधु-संतों में शृंगार का अपना महत्व है, विशेषकर तिलक का। वैष्णव संप्रदाय के साधु-संत खड़ा तिलक लगाते हैं। इसमें भी अखाड़ों व उप संप्रदाय के अनुसार आकृति या रंग में परिवर्तन होता है। वैष्णव संप्रदाय में कई प्रकार के तिलक होते हैं। शैव संप्रदाय में आड़ा तिलक लगाया जाता है। उदासीन में खड़ा-आड़ा दोनों ही प्रकार के तिलक लगाए जा सकते हैं। तिलक लगाने में साधु-संत विशेष एकाग्रता बरतते हैं। तिलक इतनी सफाई से लगाया जाता है कि अमूमन रोज ही उनका तिलक एक समान नजर आता है।

वस्त्र:- वैष्णव संप्रदाय में ज्यादातर साधु-संत श्वेत, कसाय या पीतांबरी वस्त्र का उपयोग करते हैं, वहीं शैव संप्रदाय में भगवा रंग के वस्त्रों का अधिक उपयोग होता है। उदासीन में दोनों ही प्रकार के वस्त्रों का चलन है। साथ ही साधु-संत रत्नों से भी सुशोभित होते हैं।

भस्म:- भगवान शिव भस्म रमाते हैं। अपने अराध्य की ही तरह शैव संप्रदाय के नागा साधुओं को भस्म रमाना अति प्रिय होता है। रोजाना स्नान के बाद ये अपने शरीर पर भस्म लगाते हैं। उदासीन में भी कई साधु भस्म रमाते हैं।

प्रस्तुत पोस्ट के लिए मैंने एक से अधिक सन्दर्भ व श्रोतों का उपयोग किया है।

-निखिलेश मिश्रा

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