नकारात्मकता से हटकर हमे सकारात्मकता की तरफ अग्रसर होना चाहिए

महाराज जी भक्तों को उपदेश दे रहे हैं:

भजन में दीनता -शांति की बड़ी जरुरत है। यह दोनों माता हैं - इनके गोद में रहने से काम बनता है। तब इनका परिवार अपना संगी हो जाता है। क्षमा, सरधा, संतोष, धर्म, दया, प्रेम, भाव, विश्वास , सत्य (और) शील -यह परिवार इनका है। तब जीव, भक्त होकर मुक्त हो जाता है।

मेरे पास बहुत पैसा है, मेरा घर बहुत बड़ा है, मैं बहुत सुन्दर हूँ, मैं बड़ा ज्ञानी हूँ, मेरी जाति श्रेष्ठ है, मैं बड़ा भक्त हूँ, मैं (या मेरे अपने) बड़े ओहदे पर कार्यरत हूँ/हैं, उसने मेरे साथ बुरा किया इसलिए मैं उसे कभी क्षमा नहीं करूँगा/करुँगी इत्यादि…महाराज जी संभवतः हमें यहाँ पर समझा रहे हैं की जिन्हें अपनी भक्ति, अपने भजन के असर होने की लालसा है - उन्हें ऐसी आदतों से (जैसे ऊपर लिखा है), ऐसी सोच से ऊपर उठना होगा। ऐसे विचार आने को रोकना कठिन हो सकता है परन्तु ऐसे विचारों के आते ही उन्हें नकारना संभव है।

भजन- कीर्तन (भक्ति) में श्रद्धा-विश्वास, अपने भाव को दृढ़ करने का निरंतर प्रयत्न करना होता है। सत्य के साथ ही रहना होता है। बाहरी या दिखावे वाली भक्ति करके तो हम अपने आप को ही धोखा देते हैं। महाराज जी आगे समझते हैं जिन्हें अपनी भक्ति से लाभान्वित होने की अभिलाषा है उन्हें दूसरों को क्षमा करना सीखना होगा, अपने -परायों के साथ शील/विनम्र रहने का प्रयत्न करना होगा, धन -संपत्ति, यश इत्यादि की प्राप्ति की दौड़ से हटकर, जो प्राप्त है वो पर्याप्त वाले सिद्धांत पर चलने का प्रयत्न होगा।

धर्म को यथासंभव पर ईमानदारी से निभाना होगा फिर चाहे वो परिवार के प्रति हो, देश -समाज के प्रति हो या और कोई हो और इस सन्दर्भ में दीनता और शांति को महाराज जी सबसे ऊपर रखते हैं। अर्थात अपने आप को निरंतर याद दिलाने की आवश्यकता है की जो कुछ मेरे पास है, मेरा है वो उस इस सर्व- शक्तिशाली ईश्वर का दिया हुआ, उन्हीं की कृपा से है।

महाराज जी कहते है की ईश्वर तक हमारे भजन -कीर्तन -सत्संग (भक्ति) की पुकार पहुंचाने के लिए, उनकी कृपा का पात्र बनने के लिए ऐसी आदतें, ऐसे गुण, ऐसा आचरण को अपनाना होगा। बाकी हमारे सामर्थ, इच्छाशक्ति और विवेक पर निर्भर करता है।

महाराज जी सबका भला करें।

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