नए कृषि कानून की असमंजस भरी सम्भावनाये ?

 


जैसा कि स्पष्ट है कि संविधान में एमएसपी की व्यवस्था नही है। आजादी के बाद के शुरुआती दशकों में किसान इस बात को लेकर काफी परेशान थे कि अगर किसी फसल का बंपर उत्पादन हो जाए तो उन्हें उसके अच्छे दाम नहीं मिल पाते थे। इस तरह से किसानों की लागत भी नहीं निकल पाती थी, परिणामतः वे आंदोलन करने लगे।

लाल बहादुर शास्त्री जी के प्रधानमंत्री रहते हुए 01 अगस्त, 1964 को एल०के० झा के नेतृत्व में एक समिति बनी, जिसका काम अनाजों की कीमतें तय करने का था। समिति की सिफारिशें लागू होने के बाद 1966-67 में पहली बार गेहूं के लिए MSP का ऐलान किया गया।

इसके बाद से हर साल सरकार बुवाई से पहले फसलों के MSP घोषित कर देती है। MSP तय करने के बाद सरकार स्थानीय सरकारी एजेंसियों के जरिये अनाज खरीदकर फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (FCI) और नेफेड के पास उसका भंडारण करती थी। फिर इन्हीं स्टोर्स से सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के जरिये गरीबों तक सस्ते दामों में अनाज पहुंचाया जाता था।

शुरुआत में केवल गेहूं के लिए MSP तय किया गया था। इससे किसान बाकी फसलों को छोड़कर सिर्फ गेहूं की फसल उगाने लगे, जिससे अनाजों का उत्पादन कम हो गया। फिर सरकार की तरफ से धान, तिलहन और दलहन की फसलों पर भी MSP दिया जाने लगा।

फिलहाल धान, गेहूं, मक्का, जई, जौ, बाजरा, चना, अरहर, मूंग, उड़द, मसूर, सरसों, सोयाबीन, शीशम, सूरजमूखी, गन्ना, कपास, जूट समेत 20 से अधिक फसलों पर MSP दिया जाता है।

देश में MSP तय करने का काम कृषि लागत एवं मूल्य आयोग का है। कृषि मंत्रालय के तहत काम करने वाली यह संस्था शुरुआत में कृषि मूल्य के नाम से जानी जाती थी। बाद में इसमें लागत भी जोड़ दी गई, जिससे इसका नाम बदलकर कृषि लागत एवं मूल्य आयोग हो गया। यह अलग-अलग फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण करती है। वहीं गन्ने का MSP तय करने की जिम्मेदारी गन्ना आयोग के पास होती है।

MSP तय करने की प्रकिया काफी जटिल और लंबी होती है। इसके लिए आयोग अलग-अलग इलाकों में किसी खास फसल की प्रति हेक्टेयर लागत, खेती के दौरान आने वाले खर्च, सरकारी एजेंसियों की स्टोरेज क्षमता, वैश्विक बाजार में उस अनाज की मांग और उसकी उपलब्धता आदि मानकों के आंकड़े इकट्ठा करता है। इसके बाद सभी हितधारकों और विशेषज्ञों से सुझाव लिए जाते हैं। अंत में आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति इस पर अंतिम फैसला लेती है।

सरकार भले ही 20 से ज्यादा फसलों के लिए MSP तय करती है, लेकिन आमतौर पर सरकारी स्तर पर खरीद केवल गेहूं और धान की हो पाती है। ऐसे में सभी किसानों को MSP का फायदा नहीं मिल पाता। इसकी वजह यह है कि गेहूं और धान को सरकार PDS प्रणाली के तहत गरीबों को देती है इसलिए उसे इसकी जरूरत होती है। बाकी फसलों की उसे इतने बड़े स्तर पर जरूरत नहीं पड़ती, इसलिए उनकी खरीद नहीं होती।

एमएसपी तय होने की प्रक्रिया अब भी उपरोक्तानुसार यथावत जारी है। लोगो में ऐसा भ्रम फैलाया जा रहा है कि नए कानून में एमएसपी समाप्त कर दी गयी जबकि सपष्ट है कि एमएसपी तय करने की बाध्यता रखने वाला कोई कानून देश मे पहले भी नही था और अब भी नही है।

कंट्रेक्ट फार्मिंग से भी किसानों को लाभ होगा कि उनकी फसलों का दाम पहले ही तय हो सकेगा और वे बाजार भाव के उतार चढ़ाव से अपेक्षाकृत से निश्चिंत हो सकेंगे।

इसी प्रकार यदि किसान अच्छा मुनाफा कमाना चाहते हैं तो उन्हें खुद के स्टोरेज बनाने चाहिए यानी भंडारण एवं वितरण क्षमता स्वतः विकसित करनी चाहिए अन्यथा जिसे आज निजी कम्पनी द्वारा अधिकांश लाभ अर्जन कहा जा रहा है वह उनका अधिकांश लाभ ना होकर रिस्क एंड रिसोर्सेस कॉस्ट है क्योंकि भंडारण और बाजार वितरण का दायित्व इन कम्पनी का है बल्कि सड़ने गलने का रिस्क फैक्टर भी उनका है।

मेरी राय में अब समय है कि अपने अनाज का दाम सरकार नही बल्कि किसान खुद तय करें। साल का नफा नुकसान देखकर शाक, भाजी, तरकारी, फल इत्यादि शीघ्र खराब होने वाले उत्पादन का भी न्यूनतम दाम तय करें। इन तमाम पहलुओं से नए कृषि कानून बेहद कारगर साबित हो सकते हैं।

किन्तु इसके बावजूद कुछ विचारणीय बिंदुओं पर मित्रो से उनकी टीप्पणियो द्वारा सुझाव व चर्चा की अपेक्षा है।

(१) क्या एमएसपी से नीचे की खरीद को बाध्यकारी बनाया जाना उचित है? 

(२) WTO द्वारा निर्धारित मूल्य जो कि प्रायः एमएसपी से कम होता है, इन दशाओ में क्या निजी प्रतिष्ठानो द्वारा किये जा रहे आयात पर सरकारी हस्तक्षेप किया जा सकता है?

(३) क्या जमाखोरी कितनी, किन अनाजो की और कैसे होगी इसकी कोई सीमा है? 

(४) प्रायः बाजार का भाव बाजार खुद तय करता है, और करना भी चाहिए किन्तु यदि समस्त निजी प्रतिष्ठान एकजुट हो गए अथवा किन्ही एक या दो प्रतिष्ठानों ने ही अधिकांश अनाज खरीद कर भण्डारण कर लिया तब क्या उनके द्वारा बाजार में अनाजो की नकली किल्लत पैदा कर के अनाज का भाव बढ़ाने की मनमानी पर रोक लगाई जा सकती है? 

(५) किसान चाहे तो अपनी फसल खुद खेती कर सकता है, वह अनुबंध के लिए बाध्यकारी नही है किन्तु जब एक ही प्रतिश्ठान द्वारा गांव के अधिकतर किसानो के मध्य कंट्रैक्ट फार्मिंग को लेकर अनुबंध हो रहा हो तब क्या प्रतिष्ठान द्वारा फसल के दाम तय करने की न्यूनतम सीमा सम्बन्धी व्यवस्था है?


(निखिलेश मिश्रा)

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