सभी मेलों में सर्वश्रेष्ठ है "महाकुंभ-मेला"


कैसे तय होता है महाकुम्भ?

भारत में १२ वर्षों के अंतराल पर चार स्थानों पर कुंभ का आयोजन होता है। भारी जनसमुदाय के उमड़ने के कारण इसे कुंभ मेला कहा जाता है। आगामी कुंभ मेला २०२१ में १४ जनवरी से शुरू होने वाला है।

जिस तरह चार अलग-अलग स्थानों पर राशियों के अनुसार कुंभ आयोजित किया जाता है, ठीक उसी तरह अलग-अलग वर्षों में आयोजित होने वाले कुंभ के नाम भी अलग-अलग हैं। यह भी समय काल और राशियों की गति-स्थिति पर ही आधारित हैं। इन्हें क्रमशः महाकुंभ मेला, पूर्ण कुंभ मेला, अर्ध कुंभ मेला और कुंभ मेला कहा जाता है। महाकुंभ मेला: सभी कुंभ मेलों में सबसे सर्वश्रेष्ठ है महाकुंभ मेला।

इसकी खासियत है कि यह दो शताब्दी के बीच यानी १४४ साल में एक बार आता है। इसका आयोजन केवल प्रयाग राज में ही होता है। जब प्रयाग राज में १२ पूर्ण कुंभ पूरे हो जाते हैं तो उसके बाद महाकुंभ आयोजित होता है। त्रिवेणी (गंगा-यमुना-सरस्वती) के संगम तट पर होने के कारण इसकी महानता और महत्ता अधिक है। पूर्ण कुंभ मेला: यह हर १२ साल में आता है। मुख्य रूप से भारत में ४ कुंभ मेला स्थान यानी प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में आयोजित किए जाते हैं। यह हर १२ साल में इन ४ स्थानों पर बारी-बारी आता है। यह राशि पर आधारित समय काल पर चलता है। एक स्थान पर उसी राशि का कुंभ होने में १२ वर्ष लगते हैं।

अर्ध कुंभ मेला: १२ वर्ष के अंतराल के बीच में हर साल ६ महीने में लगने वाले कुंभ को अर्ध कुंभ कहते हैं। केवल हरिद्वार और प्रयागराज में ही इनका आयोजन किया जाता है। इनकी महत्ता पूर्ण कुंभ जैसी ही होती है। दूर-दूर से श्रद्धालु जन पहुंचते हैं। कुंभ मेला: एक स्थान के बाद राशि और ग्रहों का विचलन (अपने स्थान से हटना) अगले तीन साल में होता है। इस आधार पर हर तीन साल में राज्यों के जरिए कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है। चार अलग-अलग स्थानों पर राज्य सरकारों द्वारा हर तीन साल में आयोजित किया जाता है। लाखों लोग आध्यात्मिक उत्साह के साथ भाग लेते हैं।

सिंहस्थ कुंभः सिंहस्थ कुंभ का संबंध सिंह राशि से है। सिंह राशि में बृहस्पति एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर उज्जैन में कुंभ का आयोजन होता है। इसके अलावा सिंह राशि में बृहस्पति के प्रवेश होने पर कुंभ पर्व का आयोजन गोदावरी के तट पर नासिक में होता है। सिंह राशि के विशेष नक्षत्र में होने के कारण इस कुंभ को सिंहस्थ कुंभ कहते हैं। यह कुंभ मध्य प्रदेश की सांस्कृतिक धरोहर भी है।इस वर्ष संवत २०७८ में एक महाकुंभ और दो अर्ध कुंभ का संयोग बन रहा है। तीन-तीन कुंभ महापर्व का ऐसा महासंयोग सैकड़ों वर्षों में एक बार आता है।


स्पष्ट है कि महाकुंभ पर्व का संयोग १२ वर्ष बाद आता है और यह इस सदी का दूसरा महाकुंभ है। हरिद्वार में इस बार इस महाकुंभ का संयोग बना है। अर्धकुंभ महापर्व का संयोग प्रत्येक छह वर्ष बाद बनता है। शास्त्रों में लिखा है-
कुंभ राशि गते जीवे यद्दिने मेषगोरवि:। 
हरिद्वारे कृते स्नानं पुनरावृति वर्जनम्।। 

अर्थात जब बृहस्पति कुंभ राशि प्रवेश करते हैं तब हरिद्वार में महाकुंभ का पुण्य अवसर आता है। पांच अप्रैल २०२१ को बृहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करेंगे। चैत्र नवरात्रि १४ अप्रैल २०२१ दिन बुधवार से हरिद्वार महाकुंभ पर्व में आरंभ हो जाएगा और उसके पुनीत अवसर एवं स्नान दो-तीन माह पहले ही आरंभ होंगे, इसलिए १४ जनवरी से ही इससे महाकुंभ का आगाज हो जाएगा। महाकुंभ के शाही स्नान की तिथियां निम्नानुसार हैं-

१४ जनवरी २०२१ मकर सक्रांति पर्व।
२८ जनवरी २०२१ पौष मास की पूर्णिमा गुरु पुष्य अमृत योग।
३१ जनवरी २०२१ संकट चतुर्थी
११ फरवरी २०२१ मौनी अमावस्या।
१६ फरवरी २०२१ बसंत पंचमी उत्सव
२७ फरवरी २०२१ माघ पूर्णिमा।
११ मार्च २०२१ महाशिवरात्रि व्रत शाही स्नान
२० मार्च बसंत संपात, महाविषुव  दिन।
२८ मार्च २०२१ फाल्गुन पूर्णिमा होलिका दहन।
१२ अप्रैल २०२१ सोमवती अमावस्या शाही स्नान।
१३ अप्रैल २०२१ नव वर्ष प्रतिपदा गुड़ी पड़वा स्नान।
१४ अप्रैल २०२१ सक्रांति पुण्य काल शाही स्नान
२१ अप्रैल २०२१ श्रीराम नवमी जन्मोत्सव।
२७ अप्रैल २०२१ चैत्र पूर्णिमा।


कुंभ पर्व के आयोजन को लेकर दो-तीन पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं जिनमें से सर्वाधिक मान्य कथा देव-दानवों द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कुंभ से अमृत बूँदें गिरने को लेकर है। इस कथा के अनुसार महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण जब इंद्र और अन्य देवता कमजोर हो गए तो दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया। सब देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और उन्हे सारा वृतान्त सुनाया। तब भगवान विष्णु ने उन्हे दैत्यों के साथ मिलकर क्षीरसागर  का मंथन करके अमृत निकालने की सलाह दी। 

भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर संपूर्ण देवता दैत्यों के साथ संधि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए। अमृत कुंभ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इन्द्रपुत्र जयन्त अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयंत का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयंत को पकड़ा। तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा।

इस परस्पर मारकाट के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर कलश से अमृत बूँदें गिरी थीं। उस समय चंद्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। कलह शांत करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बाँटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अंत किया गया।

अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर १२ दिन तक निरन्तर युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। अतैव कुम्भ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुंभ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्यों की वहाँ पहुँच नहीं है। जिस समय में चंद्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, माना गया है कि तब कुंभ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वहाँ कुंभ पर्व होता है।


निखिलेश मिश्रा

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