हमारी आवश्यकता की पूर्ति के लिए हम पर ब्रह्मांड शक्ति का अनुग्रह होता है


कर्म और प्रारब्ध

जब मनुष्य जन्म लेकर इस पृथ्वी पर आता है तो संचित कर्मों अर्थात पूर्व जन्मों में इकट्ठे कर्मो को साथ लाता है जिन्हे भोगना बाकी होता है। उनमें से कुछ कर्म तीव्र होते हैं और कुछ कर्म मन्द। तीव्र कर्म का फल तुरंत मिलता है जबकि मंद कर्म का फल देर से प्राप्त होता है। तीव्र कर्म भोगने के लिये ही यह जन्म मिला है। इसी का नाम है~प्रारब्ध।

कर्म का वह भाग जो अभी भोगने को नहीं मिला है, उसका नाम~अनारब्ध हैं। वह अभी शुरू नहीं हुआ लेकिन ढेर पडा हैं। वह आपको भोगना है और उसे आपने भोगने के लिये ले लिया हैं। अब भगवान ने हाथ दिये है तो यहां अपने हाथों से अनेक कर्म करते हैं। पुराने कर्मों के अलावा हम नये कर्म भी कर रहे हैं। यदि परमात्मा की कृपा हुई और आत्मा का साक्षात्कार हुआ तो सारा अनारब्ध कर्म समाप्त हो जायेगा। वह कर्म ज्ञान से भी नष्ट हो सकता है परन्तु प्रारब्ध कर्म भोग से ही नष्ट होगा। 

हमारे शरीर में जो तत्व या शक्ति है, वह सारे ब्रह्मांड में भी है। यदि शरीर में उसकी कमी होती है तो बाहर से पूर्ति हो सकती हैं। हमारे शरीर में रक्त है तो सृष्टि में पानी हैं। हमारे शरीर में आँखें हैं तो बाहर उसका तत्व सूर्य में है। हमारे अन्दर प्राण हैं तो बाहर वायु है। हमारे शरीर में लोहा है तो बाहर सृष्टि में भी वह रहता है। इस प्रकार बाहर से सहायता मिलने की प्रक्रिया को हम तत्व ज्ञान की भाषा में अनुग्रह कहते हैं। हमारी आवश्यकता की पूर्ति के लिए हम पर ब्रह्मांड शक्ति का अनुग्रह होता है।

ऐसी कोई शक्ति बाहर अवश्य है जिसकी सहायता आध्यात्मिकता के क्षेत्र में जरूरत पडने पर हमें मिल सकती है। भक्ति से ही निस्तार है। उससे भी हमें सहायता मिलती है, क्योकि अपने प्रयत्न की भी एक सीमा होती है। उसके बाद कहीं से सहायता मिलनी चाहिए और वह निश्चित सृष्टि से मिलती है। प्रारब्ध कर्म जब समाप्त हो जायेगा तब मनुष्य मर जायेगा। परन्तु उसके बाद पुराना संचित और नया किया गया कर्म फिर से भोगना होगा। जितना खा लिया, यदि उससे कमोबेश बढाया तो वह बढ भी सकता है और घट भी सकता है। पुनर्जन्म के कुल कर्मों का घेरा छोटा भी हो सकता है और बडा भी हो सकता है। यह हमारे पुरूषार्थ पर निर्भर करता है।

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