आतंक केवल वह नहीं है जो पाकिस्तान करे
और इस तरह एक बार फिर भीड़तंत्र ने लोकतंत्र को उसकी औकात बता दी। जो हुआ वह आजादी के बाद देश के लिए सबसे अपमानजनक घटनाओं में से एक है। पर इस घटना से थोड़ा भी कम अपमानजनक इस पर आ रही निर्लज्ज प्रतिक्रियाएं नहीं हैं।
एक पक्ष पूरी निर्लज्जता के साथ पूरे आतंक की जिम्मेवारी एक फिल्मी भांड के ऊपर डाल कर कह रहा है कि वह भाजपाई है। जैसे लालकिला पर हमला अकेले उसने किया हो... पिछले महीने दिन से वह आंदोलन के मुख्य चेहरों में एक था, और आज भाजपाई हो गया? उसके साथ खड़े हजारों लोग क्या शांति के गीत गा रहे थे? क्या उसके भाजपाई सिद्ध हो जाने से वे सारे आतंकवादी दोषमुक्त हो जाएंगे जिन्होंने कल लालकिले पर चढ़ कर तिरंगे का अपमान किया?
दूसरी तरफ वे लोग हैं जो इतनी अभद्रता और राष्ट्र का अपमान होने के बाद भी कह रहे हैं कि सरकार से प्रश्न न पूछे जाँय। उन्हें इसमें कूटनीति और जाने क्या क्या दिख रहा है। जैसे जनता ने मोदीजी को सत्ता कूटनीति खेलने के लिए दी हो।
26 जनवरी को जो हुआ वह कोई छोटी या सामान्य घटना नहीं थी, वह राष्ट्रीय अस्मिता का चीरहरण था। सत्ता और उसके आदेश से बंधा प्रशासन चुपचाप इस अभद्र घटना को देखता रह गया, इस अपराधबोध से वह कभी मुक्त नहीं होगा। पर यदि इस घटना के बाद भी अपराधियो के हाथ नहीं काटे गए तो थू है इस व्यवस्था पर...
किसके डर से डर गए आप? किसके डर से आपके हथियारबंद जांबाज सिपाही चुपचाप यह उपद्रव देखते रहे? आपका डर यही था न कि पुलिस के उग्र होने पर विपक्ष आपकी आलोचना करेगा, सुप्रीम कोर्ट आपसे प्रश्न पूछेगा?
देश ने सत्ता न विपक्ष को सौंपा है न सुप्रीम कोर्ट को। सत्ता उन जलनखोरों को भी नहीं दी गयी जो दिन भर 'मोदी नाम केवलम' का जाप करते हैं। सरकार की आलोचना करना उनका धंधा है और वे पूरी निष्ठा से अपना धंधा कर रहे हैं। सत्ता आपको दी गयी है। और इसलिए नहीं दी गयी कि आप विपक्ष से डरते रहें। इसलिए दी गयी कि आप राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा करें। आप यदि लालकिले की भी रक्षा नहीं कर सकते तो क्या करेंगे?
मेरा मत स्पष्ट है कि इतने बड़े कांड के बाद भी यदि राकेस टिकैत, योगेंद्र यादव और हन्नान मुल्ला जैसे लोग स्वतंत्र घूम कर बयान देते फिरें तो धिक्कार है सरकार पर... आप आंदोलन में खालिस्तानी हाथ, पाकिस्तानी हाथ का बहाना मार कर नहीं बच सकते, इसमें जो भी हाथ हो उसे काट दिया जाना चाहिए।
पिछले कुछ वर्षों से आंदोलन के नाम पर आतंक फैलाना फैशन हो गया है। कभी मुंबई में शहीद स्मारक तोड़ा जाता है, कभी चिकेन नेक को देश से काटने की बात होती है, और लालकिले पर तिरंगा तोड़ा जाता है। लगता है जैसे राष्ट्र के प्रतीकों का अपमान करना बच्चों का खेल हो गया है। यह आतंकवाद तबतक नहीं रुकेगा जबतक इसे सख्ती से न कुचला जाय।
आतंक केवल वह नहीं है जो पाकिस्तान करे। यदि आप ऐसी घटनाओं को आंदोलन या हिंसा कह कर कन्नी काट लेते हैं तो फिर आप देश के भविष्य के साथ छल कर रहे हैं। आपको स्वीकार करना ही होगा कि यह आतंकवाद है, शुद्ध आतंकवाद...
आज सरकार कठघरे में खड़ी है, और तबतक कठघरे में ही रहेगी जबतक इन आतंकियों को देशद्रोह के केस में अंदर नहीं कर देती। बस...
(सर्वेश तिवारी श्रीमुख)