अहंकार को घर करने के लिए और मति भ्रष्ट होने के लिए, बस छोटी सी चिंगारी चाहिए फिर चाहे वो धन -संपत्ति -ओहदे की हो, जाति की हो
यह सब भीख उसी को भगवान देते हैं, जो दीन भिखारी होता है।
उसी की झोरी भगवान भर देते हैं।
अपने भाव से गुरू, सब देवी-देवता खुश रहते हैं (और) मिलते हैं।
अहंकार को घर करने के लिए और फिर मति भ्रष्ट होने के लिए, बस छोटी सी चिंगारी चाहिए फिर चाहे वो धन -संपत्ति -ओहदे की हो, जाति की हो, वेद -पुराण या अन्य दिव्य- ग्रंथों के (किताबी) ज्ञानी होने की हो, अपनी ख्याति -प्रसिद्धि की हो, गलत -सही जो भी हो परन्तु अपनों-परायों के सामने स्वयं को बड़ा मानने की हो (मैं बड़ा/बड़ी हूँ इसलिए मेरी बात सुनो), और कुछ नहीं तो अपने -आप को बड़ा भक्त मानने की हो और पता नहीं क्या क्या …… तदुपरांत दूसरों को दुःख देना, कष्ट पहुँचाना।
संभवतः महाराज जी यहाँ पर हमें समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि ईश्वर सच्ची भक्ति की कृपा उसी को देते हैं, जो विनम्र होता है, जो ये मान के चलता है की अच्छा -बुरा जो भी उसके जीवन में है, जितना है, जब तक है, सब वो उस सर्वशक्तिशाली परम आत्मा की मर्ज़ी से है।
अर्थात किसी गृहस्थ भक्त को तभी उस परम आत्मा की समीप जाने का अवसर मिल सकता है जब उसने अहंकार- क्रोध पर नियंत्रण/शमन करना सीख लिया हो। जिन भक्तों को अपने जीवन में, सुख और दुःख दोनों में, महाराज जी का साथ भी चाहिए, उन्हें इस बारे में सब्र के साथ और लगातार कोशिश करनी पड़ेगी। और जो साधक बनने के मार्ग पर चल रहे हैं उन्हें तो सच्ची भक्ति की प्राप्ति के लिए अहंकार का दमन ही करना होगा।
महाराज जी हमें फिर से एक बार याद दिला रहे हैं कि यदि हम देवी -देवताओं को, अपने आराध्य को, गुरु को वास्तविकता में प्रसन्न करना चाहते हैं, उनके समीप जाना चाहते हैं तो ये किसी भी प्रकार के ऊपरी या दिखावे वाली भक्ति से संभव नहीं है। उसके लिए हमारे मन में उनके लिए केवल सच्चे भाव की आवश्यकता होती है। उनमें विश्वास और समर्पण की आवश्यकता होती है। अपने आप को ये याद दिलाना होता है, कभी -कभी बार -बार, की वो हैं, सब देख रहे हैं।
और हाँ, जब हमारा आचरण दीन होगा, जब हम विनम्र होंगे (व्यव्हार में, बोलचाल में -सभी के साथ) तो उस परम -आत्मा की कृपा से और महाराज जी के आशीर्वाद से, हमें सब कुछ स्वतः मिलेगा, वो जिसमें अंततः हमारी भलाई है, हमारा कल्याण है।
महाराज जी सबका भला करें।