भक्त की संपूर्ण क्रियाएं भगवान की प्रियता के लिए ही होती है

जीव मात्र कि भगवान के प्रति स्वाभाविक अनुरक्ति (प्रेम) है। जब तक संसार में आसक्ति होती है, तब तक भगवान के प्रति अनुरक्ति प्रकट नहीं होती। अनुरक्ति के प्रकट होते ही आसक्ति सर्वथा निवृत्त हो जाती है। ज्यों-ज्यों संसार में विरक्ति होती है, त्यों ही त्यों भगवान में अनुरक्ति प्रकट होती है।

भक्त की संपूर्ण क्रियाएं भगवान की प्रियता के लिए ही होती है। उससे प्रसन्न होकर भगवान उस भक्त को अपना प्रेम प्रदान करते हैं। भक्त उस प्रेम को भी भगवान के ही प्रति लगा देता है। इससे भगवान और आनंदित होते हैं तथा पुनः उसे प्रेम प्रदान करते हैं। भक्त पुनः उसे भगवान के प्रति लगा देता है। इस प्रकार भक्त और भगवान के बीच प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम के आदान-प्रदान की लीला चलती रहती है।

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