देश में श्रमिको की भी न्यूनतम मजदूरी तय है लेकिन किसानों की नहीं


किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य मिले, यह अधूरी बात है। सवाल यह है कि केवल लाभकारी मूल्य ही क्यों मिले, उनकी हकदारी क्यों ना मिले? यह हकदारी क्या है? चपरासी से लेकर देश के राष्ट्रपति का वेतन तय है तो फिर किसान के उपज के मूल्य के साथ उसका मेहनताना क्यों तय ना हो? जब बोआई, सिंचाई, कटाई/ मड़ाई का समय होता है तो लघु एवं सीमांत किसानों के परिवार में केवल अन्नदाता ही खेतों में कार्य नहीं करता है बल्कि घरवाली के साथ-साथ उसके बेटे-बेटियां भी खेतों में काम करते है।

इसके अलावा फसल की रखवाली में तो बोआई से लेकर जब तक अनाज घर तक नहीं आता है तब तक एक किसान और उसका परिवार फसल की सुरक्षा के लिए संघर्ष करता है। सोचिये कि यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि इस देश में श्रमिको की न्यूनतम मजदूरी तय है लेकिन किसान की नहीं है और इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि हमारी विधान सभा और लोकसभा में इन बेहद महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस तक नहीं होती है। इसका कारण यह है कि विधानसभा/ लोकसभा में 'दल प्रतिनिधि' है, 'जन प्रतिनिधि'  है ही नहीं।

किसानों के उपज का सही मूल्य मिले, उनके घर में भी खुशहाली आये। इस सवाल पर पता नहीं क्यों कुछ लोगों को परेशानी होने लगती है। आप बताइये कि फैक्ट्री में पैदा होने वाले उत्पादों की कीमत कौन तय करता है? यदि पारले जी, ब्रिटानिया के बिस्किट, जूते, घड़ी, कपड़ें, मोटरसाइकिल, कार आदि की कीमत इसको बनाने वाले तय करते है तो खेतों में पैदा होने वाले अनाज की कीमत तय करने का अधिकार किसान को क्यों ना मिले? क्या यह विचारणीय विषय नहीं है कि किसानों के जिस उत्पाद का मूल्य बिलकुल कम होता है वह बाजार में ज्यादा मूल्य पर बिकता है। किसान के आलू का मूल्य क्या मिलता है और जब यह चिप्स का स्वरुप ग्रहण कर लेता है तब इसका मूल्य कितना हो जाता है ?

जब तक खलिहान और मंडी के बीच कम से कम 'एक और डेढ़' का रिश्ता कायम नहीं होगा तब तक धरती का भगवान 'किसान' खुशहाल नहीं होगा। यह 'आलू बनाम चिप्स' का द्वंद कोई साधारण मुद्दा नहीं अपितु यह तड़फता भारत बनाम चमकता भारत, गिड़गिड़ाता भारत बनाम खिलखिलाता भारत, वंचित भारत बनाम पोषित भारत, पैदल भारत बनाम आडी भारत, श्रमजीवी भारत बनाम मुनाफाखोर भारत की लड़ाई है। यदि सीधे कहूँ तो यह 'भारत बनाम इंडिया' की लड़ाई है। यही भारत महादेश के राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक परिदृश्य का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है। देश का प्रत्येक नागरिक इस 'भारत बनाम इंडिया' के सवाल का सामना कर रहा है। अब यह हमें तय करना है कि भारत बनाम इंडिया' की लड़ाई में हम कहां और किसके साथ है। मैं एक नागरिक के रुप में 'भारत' के साथ था, हुं और जीवन के अंतिम साथ तक रहुंगा।

जब किसानों के उपज का मूल्य बढ़ाने की बात की जाती है तो एक बड़ा सवाल सामने रख दिया जाता है कि रोज कमाने-खाने वाले मर जायेंगे क्योंकि वे मंहगा आटा, दाल, तेल, चावल आदि नहीं खरीद पायेंगे। क्या केवल इस आधार पर किसानों को उनकी उपज के सही मूल्य से वंचित करना उचित होगा कि इससे  रोज कमाने - खाने वालों का जीना मुहाल हो जायेगा। जो लोग इस तरह का तर्क देते है उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि गरीब लोगों के लिए जो सार्वजनिक वितरण प्रणाली की व्यवस्था की गई है, उसे भ्रष्टाचार से पूर्णतया मुक्त करने के लिए उन्होंने क्या किया? बताते चले कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली एक खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम है, जो उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के अधीन है।

इस योजना के अंतर्गत भारत सरकार और राज्य सरकार संयुक्त रूप से गरीबों के लिए सब्सिडी वाले खाद्य और गैर खाद्य वस्तुओं वितरित करता है। यदि  इस तरह के कार्यक्रम ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ लागू किये जाय तो भूखमरी पर पूरी तरह से काबू पाया जा सकता है। किसानों को लाभकारी मूल्य के नाम पर जो लोग रोज कमाने - खाने वाले के स्वयंभू हितैषी बनकर किसानों के मार्ग में रोड़ा बनते  है, वे पूरे संदर्भो को समझना ही नहीं चाहते है। कृषि क्षेत्र में जब भी कोई योजना बनती है तो इसमें आईएएस आफीसर लोग भी रोड़ा अटकाते है। दरअसल तीव्र बुद्धि के छात्र आईएएस आफीसर तो बन जाते है लेकिन इनको जमीनी समझ कम ही होती है और ये उसे समझना भी नहीं चाहते। इसके अलावा इनको किसान - खेती से कोई लगाव भी नहीं होता।

यही कारण है कि कृषि नीतियों में बदलाव नहीं हो पा रहा है। जहां तक गरीबों के सम्मान की बात है तो जब 12 लोग मिलकर किसी एक व्यक्ति को एक केला पकड़ाते है तब यह उसका सम्मान है कि हंसी उड़ाना। भूखों-गरीबों को पूड़ी से लेकर कंबल बांटते समय जो दानवीर उसकी तस्वीर सोशल मीडिया में डालते है वे एक तरह से जाने-अनजाने एैसा करके उनकी गरीबी - बेबसी का मजाक उड़ा रहे होते है, अपमान कर रहे होते है। भारत की पवित्र भूमि पर 'अंगराज कर्ण' जैसे व्यक्तियों का अस्तित्व रहा है जिन्होंने अपना रक्षा कवच - कुंडल तक देवराज इन्द्र को दान में दे दिया था। भारत में गरीब कौन है? मैं इसकी धार्मिक एवं जातीय आधार पर कोई व्याख्या नहीं करना चाहता जिससे बहस दूसरी दिशा में चली जाय।

आपने कितने सिखों को भीख मांगते देखा है? मुस्लिम लड़कों को भी कोई ना कोई हुनर सिखाया जाता है, इनमें अधिकांश 09 से 12 साल की आयु में ही धनार्जन करना शुरू कर देते है। बेरोजगारी सबसे ज्यादा कहां है ? पूड़ी से लेकर कंबल के लिए कौन हाथ फैला रहा है ? गरीबी रेखा के नीचे का लाभ लेने के लिए कौन लाइन में खड़ा है ? ससुराल से अनुदान प्राप्त मोटरसाइकिल/ कार चलाने वाले सबसे ज्यादा किस समाज के है? सारे अरमान विवाह के समय ससुराल से कौन पूरा करना चाहता है? किस्मत का रोना सबसे ज्यादा कौन लोग रोते है ? अब समय आ गया है कि गरीबों, बंचितों, शोषितों के बच्चों - तरुणों को हुनरमन्द बनाया जाय। वे स्वावलंबी बने उनके भीतर पराक्रम का भाव पैदा हो। एक स्वाभिमानी राष्ट्र में किसी को पूड़ी और कंबल के लिए किसी के सामने हाथ ना फैलाना पड़ें। अब हमकों परलोकवाद - भाग्यवाद - निराशावाद  से छुटकारा लेना ही होगा। अपने कर्म से अपने भाग्य को बदलना होगा। सनातन धर्म में अब पुर्नजागरण की जरूरत है।

किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य ना मिले इसके लिए उच्च वर्ग एवं उच्च मध्य वर्ग के जो लोग कुतर्क करते है, उनको मंहगे रेस्टोरेंट में 1500 रू. से लेकर 5000/ 10000 तक का एक थाली भोजन करने में कोई समस्या नहीं दिखती। रू.5000 से लेकर रू.25000 तक का जूता पहनने में भी इनको कोई परेशानी नहीं है। 25 लाख रू. से लेकर 02-02 करोड़ रू. की कार खरीदने में भी ये आगे है। मंहगी से मंहगी शराब ये पियेंगे लेकिन गेहूँ का मूल्य 35 रू. किलो हो जाय तो यह सुनकर इनकी छाती पर सांप लोटने लगता है।

किसानों को केवल उपज का सही मूल्य और हकदारी ही न मिले बल्कि निजी क्षेत्र का सहयोग लेकर केन्द्र/ राज्य सरकार संयुक्त रुप से खेती - किसानी का चेहरा बदलने की पहल करें। उन्नतिशील बीज, उर्वरक, कीटनाशक दवाएं सस्ते मूल्य पर मिलें। सिंचाई की सुविधा बढ़ाई जाय। एक ही किसान की यदि कई छोटी-छोटी जोत है तो उसे एक जगह पर लाया जाय। कृषि के साथ पशुपालन और बागवानी को जोड़कर सरकार ज्यादा से ज्यादा सुविधाएं एवं प्रशिक्षण दे ताकि किसानों की आय में वृद्धि हो। कृषि प्रयोगशालाओं को ज्यादा से ज्यादा सुविधा दी जाय जिससे वैज्ञानिक कम जोत में अधिकतम उत्पादन का मार्ग प्रशस्त करें।


नैमिष प्रताप सिंह

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