किसी भूखे को खाना खिलाना ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ कर्म होता है


यज्ञ हो (और), एक भूखा चला जाय, सब व्यर्थ।
 
परस्वार्थ की श्रेणी में किसी भूखे को खाना खिलाना सबसे ऊपर माना गया है, विशेषकर हमारे महाराज जी द्वारा। संभवतः यहाँ पर महाराज जी यज्ञ या आज के हमारे समाज में वैसे ही कोई धार्मिक, सामाजिक या पारिवारिक समारोह (भी) या आयोजन जैसे भंडारा, कथा, सत्संग, रामायण -पाठ, कीर्तन इत्यादि, के सन्दर्भ में हम भक्तों को समझा रहे हैं जो हमने आयोजित किया हो और जहाँ पर जल -पान की व्यवस्था भी हो

ऐसे अनुष्ठान का उचित फल प्राप्त करने के लिए हमें ये ध्यान रखना होगा कि हमारे द्वार से आया कोई भी भूखा, बिना खाए ना चला जाय, फिर चाहे वो परिचित हो या अपरिचित, निर्धन हो या संपन्न, बच्चा हो या बूढा या ऐसा ही कोई वंचित स्त्री या पुरुष हो (जाति-धर्म के बारे में तो सोचना भी नहीं है!!) क्योंकि भूखे इंसान की पहचान केवल भूखे की होती है जिसकी मदद करके हम भगवान का काम करते हैं।

अभी कल ही की कहानी में हमने देखा की केवल 25 रूपये में ऐसा सुख मिलना संभव है जिसकी अनुभूति 25,000 रूपये का फोन इत्यादि भी नहीं दे सकता क्योंकि किसी की निस्वार्थ भाव से मदद करने से हमें ऐसा आत्मीय सुख मिलना संभव है जिसकी अनुभूति बहुत समय तक रहती है फोन जैसे यंत्र इत्यादि या खाने-पीने की चीज़ों से मिला सुख तो कुछ दिन या सप्ताहों में ही समाप्त हो जाता है। जो पुण्य कमाया वो ऊपर से, क्योंकि इसका फल तो वो सर्वज्ञ परमात्मा हमें देगा ही देगा और ये स्पष्ट भी है की वो फल हमारे लिए सुखद ही होगा। हाँ हमें वंचितों की मदद करने के, भूखे को खाना खिलने के अपने कर्म का बखान (फोटो/फेसबुक) नहीं करना है, नहीं तो जैसे महाराज जी कहते हैं कि कुछ भी प्राप्त नहीं होगा।

महाराज जी सबका भला करें।

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