मनुष्य अपने समय की घटनाओं का माध्यम भर होता है
हस्तिनापुर
में पाण्डवों के राज्याभिषेक के बाद जब कृष्ण द्वारिका जाने लगे तो
धर्मराज युद्धिष्ठर उनके रथ पर सवार हो कर कुछ दूर तक उन्हें छोड़ने के लिए
चले गए। भगवान श्रीकृष्ण ने देखा, धर्मराज के मुख पर उदासी ही पसरी हुई थी।
उन्होंने मुस्कुरा कर पूछा, "क्या हुआ भइया? क्या आप अब भी खुश नहीं?"
"प्रसन्न होने का अधिकार तो मैं इस महाभारत युद्ध में हार आया हूँ केशव!
मैं तो यह सोच रहा हूँ कि जो हुआ वह ठीक था क्या?" युधिष्ठिर का उत्तर
अत्यंत मार्मिक था। कृष्ण खिलखिला उठे। बोले,"क्या हुआ भइया! यह किस उलझन
में पड़ गए आप?" "हँस कर टालो मत अनुज! मेरी विजय के लिए इस युद्ध में तुमने जो जो
कार्य किया है, वह ठीक था क्या? पितामह का वध, कर्ण वध, द्रोण वध, यहाँ तक
कि अर्जुन की रक्षा के लिए भीमपुत्र घटोत्कच का वध कराना, यह सब ठीक था
क्या? क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुमने अपने ज्येष्ठ भ्राता के मोह में वह
किया जो तुम्हे नहीं करना चाहिए था?" धर्मराज बड़े भाई के अधिकार के साथ
कठोर प्रश्न कर रहे थे। कृष्ण गम्भीर हो गए। बोले,"भ्रम में न पड़िये बड़े भइया! यह युद्ध
क्या आपके राज्याभिषेक के लिए लड़ा गया था? नहीं! आप तो इस कालखण्ड के
करोड़ों मनुष्यों के बीच एक सामान्य मनुष्य भर हैं। आप स्वयं को राजा मान कर
सोचें, तब भी इस समय संसार में असंख्य राजा हैं और असंख्य आगे भी होंगे।
इस भीड़ में आप बहुत छोटी इकाई हैं धर्मराज, मैं आपके लिए कोई युद्ध क्यों
लड़ूंगा?" युधिष्ठिर आश्चर्य में डूब गए। धीमे स्वर में बोले- फिर? फिर यह महाभारत क्यों हुआ? "यह युद्ध आपकी स्थापना के लिए नहीं, धर्म की स्थापना के लिए हुआ है।
यह भविष्य को ध्यान में रखते हुए जीवन-संग्राम के नए नियमों की स्थापना के
लिए हुआ है। महाभारत हुआ है ताकि भविष्य का भारत सीख सके कि विजय ही धर्म
है। वो चाहे जिस प्रयत्न से मिले। यह अंतिम धर्मयुद्ध है धर्मराज! क्योंकि
यह अंतिम युद्ध है जो धर्म की छाया में हुआ है। भारत को इसके बाद उन
बर्बरों का आक्रमण सहना होगा जो केवल सैनिकों पर ही नहीं बल्कि निर्दोष
नागरिकों, स्त्रियों, बच्चों, यहाँ तक कि सभ्यता और संस्कृति पर भी प्रहार
करेंगे।
उन युद्धों में यदि भारत सत्य-असत्य, उचित-अनुचित के भ्रम में पड़
कर कमजोर पड़ा और पराजित हुआ तो उसका दण्ड समूची संस्कृति को युगों युगों तक
भोगना पड़ेगा। आश्चर्यचकित युद्धिष्ठर चुपचाप कृष्ण को देखते रहे। उन्होंने फिर कहा,
"भारत को अपने बच्चों में विजय की भूख भरनी होगी धर्मराज! यही मानवता और
धर्म की रक्षा का एकमात्र विकल्प है। इस सृष्टि में एक आर्य परम्परा ही है
जो समस्त प्राणियों पर दया करना जानती है, यदि वह समाप्त हो गयी तो न
निर्बलों की प्रतिष्ठा बचेगी न प्राण। संसार की अन्य मानव जातियों के पास न
धर्म है न दया। वे केवल और केवल दुख देना जानते हैं। ऐसे में भारत को अपना
हर युद्ध जीतना होगा, वही धर्म की विजय होगी।
युद्धिष्ठिर जड़ हो गए थे, कृष्ण ने उनकी पीठ थपथपाते हुए कहा, "मनुष्य
अपने समय की घटनाओं का माध्यम भर होता है भइया, वह कर्ता नहीं होता। भूल
जाइए कि किसने क्या किया, आप बस इतना स्मरण रखिये कि इस कालखण्ड के लिए समय
ने आपको हस्तिनापुर का महाराज चुना है, और आपको इस कर्तव्य का निर्वहन
करना है। यही आपके हिस्से का अंतिम सत्य है।"
युधिष्ठिर के रथ से उतरने का स्थान आ गया था। वे अपने अनुज कृष्ण को
गले लगा कर उतर आए। कृष्ण के सामने अभी अनेक लीलाओं का मंच सजा था।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख