प्रसन्नता की अनुभूति ही इन्द्रियभोक्ता का चरम शत्रु है
कितना भी विषय-भोग क्यों न किया जाय काम की तृप्ति नहीं
होती, जिस प्रकार कि निरन्तर ईंधन डालने से अग्नि कभी नहीं बुझती। भौतिक
जगत् में समस्त कार्यकलापों का केन्द्रबिन्दु मैथुन (कामसुख) है। अतः इस जगत् को मैथुन्य आगार या विषयी-जीवन की हथकड़ियाँ कहा गया
है।
एक सामान्य बन्दीगृह में अपराधियों को छड़ों के भीतर रखा जाता है इसी
प्रकार जो अपराधी भगवान् के नियमों की अवज्ञा करते हैं, वे मैथुन-जीवन
द्वारा बन्दी बनाये जाते हैं। इन्द्रियतृप्ति के आधार पर भौतिक सभ्यता की प्रगति का अर्थ है, इस
जगत् में जीवात्मा की बन्धन अवधि को बढाना।
अतः यह काम अज्ञान का प्रतीक है
जिसके द्वारा जीवात्मा को इस संसार में रखा जाता है। इन्द्रियतृप्ति का
भोग करते समय हो सकता है कि कुछ प्रसन्नता की अनुभूति हो, किन्तु यह
प्रसन्नता की अनुभूति ही इन्द्रियभोक्ता का चरम शत्रु है।