विपत्ति में भी संतोष करना चाहिए और अपने कर्तव्य धर्म पर दृढ़तापूर्वक अड़ा रहना चाहिए



जीवन में कई अवसरों पर बड़ी विकट परिस्थितियाँ आती हैं उनका आघात असह्य होने के कारण मनुष्य व्याकुल हो जाता है और अपनी विवशता पर रोता चिल्लाता है। प्रिय अप्रिय घटनाएं आती हैं और आती रहेंगी। जिस प्रकार वर्षा और धूप को हम नहीं रोक सकते उसी प्रकार इन्हें भी नहीं रोका जा सकता। न तो प्रिय बातों को रोक कर रखा जा सकता है और न अप्रिय को भगाया जा सकता है

प्रभु श्रीराम जी को चौदह वर्ष बन में रहना पड़ा, भगवती सीता माँ को विपत्ति सहनी पड़ी, राजा हरिश्चन्द्र जी को चांडाल की सेवा करनी पड़ी और पाण्डव वनों में छिपते फिरे। इन महानुभावों की स्वयं अपनी बड़ी सामर्थ्य थी और उनके सहायकों, मित्रों, गुरुओं में तो और भी अधिक क्षमता थी, परन्तु वे विपत्तियाँ आईं और सहनी पड़ीं, कोई उन्हें टालने को समर्थ न हुआ

कर्म भोग अथवा ईश्वर की इच्छा से ऐसे सुख दुख के प्रसंग हमारे जीवन में भी नित्य आते हैं। सुख पाकर हम प्रसन्न होते हैं पर दुखद अवस्थाओं में घबरा जाते हैं और किंकर्तव्यविमूढ़ होकर कभी कभी न करने योग्य कार्य कर डालते हैं। जिनका परिणाम उस मूल दुख से भी अनेक गुना दुखदायी होता है

ऐसे अवसरों पर हमें विवेक से काम लेना चाहिए ज्ञान के आधार पर ही हम उन अप्रिय घटनाओं के दुखद परिणाम से बच सकते हैं। ईश्वर की दयालुता पर विश्वास रखना ऐसे अवसरों पर बहुत ही उपयोगी है। हमारा ज्ञान बहुत ही स्वल्प है, इसलिए हम प्रभु की कार्य विधि का रहस्य नहीं जान पाते जिन घटनाओं को हम आज अप्रिय देख समझ रहे हैं वह यथार्थ में हमारे कल्याण के लिए ही होती हैं

माता बालक के फोड़े को चिरवा देती है बच्चा चिल्लाता है पर माता उसका हित इसी में समझती है। बच्चा इसे नहीं समझता, वह माता पर कुपित होता है और घबरा जाता है, परन्तु माता यदि वैसा न करवाती तो वह तत्वतः बालक का हित नहीं करती

हमें समझ लेना चाहिए कि अपने मोटे और अधूरे ज्ञान के आधार पर परिस्थितियों का असली हेतु नहीं जान पाते तो भी उसमें कुछ न कुछ हमारा हित अवश्य छिपा होगा, जिसे हम समझ नहीं पाते ! कष्टों के समय हमें ईश्वर की न्यायपरायणता और दयालुता पर अधिकाधिक विश्वास करना चाहिए इससे हम घबराते नहीं और उस विपत्ति के हटने तक धैर्य धारण किये रहते हैं

“संतोष” करने का शास्त्रीय उपदेश ऐसे ही समयों के लिए है कर्तव्य करने में प्रमाद करना संतोष नहीं वरन् आई हुई परिस्थितियों में विचलित न होना संतोष है संतोष के आधार पर कठिन प्रसंगों का आधा भाग हलका हो जाता है

आज चतुर्मुखी विपत्तियाँ हमारे चारों ओर छाई हुई हैं

 इस अवसर पर व्याकुल होना घबराना धैर्य छोड़ना, चिंतित एवं दुखी होना उचित नहीं। दयामय प्रभु इस विषय वेदना के गर्भ में से सुख शान्तिमय अमृत पुत्र का नव युग का जन्म करेंगे यह आशा करते हुए विपत्ति में भी संतोष करना चाहिए और अपने कर्तव्य धर्म पर दृढ़तापूर्वक अड़ा रहना चाहिए।

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