कुछ तस्वीरें सत्ता और सरकार के माथे पर कलंक की तरह होती हैं

 


कुछ तस्वीरें सत्ता और सरकार के माथे पर कलंक की तरह होती हैं इन चार मासूम बच्चों की तस्वीर बिहार सरकार के माथे पर उपजी वह कोढ़ है, जिसपर सरकार को बिल्कुल भी शर्म नहीं।

मधुबनी के इन लड़कों को देख कर न प्रधानमंत्री द्रवित होंगे, न बाटला हाउस एनकाउंटर पर रो पड़ने वाली मुख्य विपक्षी पार्टी की अध्यक्ष ही बोलेंगी। भारत की रक्षा के लिए सीमा पर छाती तान कर खड़े होने वाले एक सैनिक के परिवार की निर्मम हत्या पर भी नीतीश जी को लज्जा नहीं आएगी, न कोई मीडिया घराना इनके घर पहुँचेगा। उनके पास इस परिवार के लिए सम्वेदना के दो शब्द भी नहीं। इस भीड़तंत्र में राजनैतिक आँसू लाश की जाति देख कर बहा करते हैं। रेल में हुई एक घटना पर महीनों चिल्लाने वाले बुद्धिजीवियों के लिए यह नरसंहार कोई मुद्दा नहीं है।

हिंदुत्व का ढोंग करने वाले फेसबुकिया महानुभाव भी अपनी जातिवादी कुंठा दिखा कर अब शांत हो चुके। जिस नरसंहार पर सरकार का गिरेबान खींचा जाना चाहिए था, उसे ब्राह्मण-राजपूत का खेल बना दिया गया, और अब तीन दिन बाद ही सारे खिलाड़ी मुख्तार अंसारी पर मीम बना रहे हैं। यह मुद्दा तो पुराना हो गया है न...

जानते हैं, कोई भी नरसंहार केवल और केवल स्थानीय सरकार और उसके तंत्र की विफलता के कारण होता है। इस घटना के लिए यदि कोई जिम्मेवार है तो वह बिहार सरकार की नीतियां हैं जिसके कारण एक बार फिर बिहार नब्बे के दशक वाला बिहार हो गया है। बात केवल मधुबनी की नहीं है, आज हर जिला मधुबनी हुआ पड़ा है। और हम? हम जाति-जाति खेलने में ब्यस्त हैं।

होना तो यह चाहिए था कि लचर प्रशासन के लिए सरकार से प्रश्न पूछा जाता, उसकी निर्लज्ज चुप्पी को नंगा किया जाता, उन बच्चों के भविष्य के लिए कदम उठाने को सरकार पर दबाव बनाया जाता, जल्द से जल्द सभी आरोपियों को गिरफ्तार कर उन्हें सजा दिलाने की बात होती, पर...

कल देखा कि कुछ राजपूत विधायक मधुबनी जा कर परिवार से मिले थे। यदि एक पीड़ित परिवार के लिए अंततः केवल उसकी जाति के लोग ही आगे आएं, तो मान लेना चाहिए कि अन्य नेताओं की आत्मा मर गयी है। किसी सभ्य समाज मे इससे अधिक घृणित कुछ भी नहीं... तब इस लोकतंत्र को लोकतंत्र नहीं जातितन्त्र मान लेना चाहिए।

हत्या के अपराधी पकड़े जा रहे हैं, पर इस माहौल के अपराधी अब भी स्वतंत्र हैं। पर समय उन्हें भी देख रहा है। समय उनका हिसाब भी करेगा। पाँच साल इतने भी अधिक नहीं होते... विकल्पहीनता के नाम पर सत्ता पाने के खेल का भी अंत होगा।

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