गुरूद्वारा नाका हिन्डोला में साहिब श्री गुरू अंगद देव जी का प्रकाश पर्व बड़ी श्रद्धा के साथ मनाया गया
लखनऊ। सिखों के दूसरे गुरु साहिब श्री गुरू अंगद
देव जी का प्रकाश पर्व (जन्मोत्सव) एवं सरहंद फतहि दिवस शासन द्वारा जारी
कोविड-19 की गाइडलाइन के अनुसार सैनिटाइजिंग, मास्क एवं सोशल डिस्टेन्सिग
प्रोटोकाल का पालन करते हुए ऐतिहासिक गुरूद्वारा नाका हिन्डोला लखनऊ में
बड़ी श्रद्धा एवं सत्कार के साथ मनाया गया।
प्रातः का दीवान 6.00 बजे सुखमनी साहिब के पाठ से प्रारम्भ हुआ जो 10.30
बजे तक चला जिसमें हजूरी रागी जत्था भाई राजिन्दर सिंह शबद कीर्तन के
गायन कर समूह साध संगत को निहाल किया, उसके उपरान्त ज्ञानी सुखदेव सिंह ने श्री गुरू अंगद देव जी के जीवन पर प्रकाश डालते हुए आई साध संगतों उनके
द्वारा दर्शाये गये मार्गो पर चलने की प्रेरणा देते हुए बताया कि गुरू अंगद
देव जी का जीवन बहुत रहस्यमयी था इनका पहला नाम भाई लाहिणा था। वह देवी के
पुजारी थे एक सिख से श्री गुरू नानक देव जी की बाणी सुनकर मुग्ध हो गये।
उनके हृदय में गुरू जी के दर्शनों की लालसा लग गयी करतारपुर आकर गुरू जी के
दर्शन किये और दर्शन करके इतना आनन्द आया कि अपने आप को गुरू जी के हवाले
कर दिया। दिन रात सेवा सिमरन में जुटे रहना इनके जीवन का मुख्य कर्तव्य था।
श्री गुरू नानक देव जी ने कई बार परीक्षा ली और वे हर बार परीक्षा में सफल
होते रहे। इनकी नम्रता एवं सेवा सिमरन को देखते हुए श्री गुरूनानक देव जी
ने अपने दोनों पुत्रों को छोड़कर भाई लाहिणा जी को गुरू गद्दी सौंप दी और
भाई लाहिणा से गुरू अंगद देव बना दिया। गुरु अंगद देव जी के 62 शबद श्री
गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज हैं। गुरूमुखी लिपि की एक वर्णमाला को प्रस्तुत
किया। वह लिपि बहुत जल्द लोगों में लोकप्रिय हो गयी। उन्होने बच्चों की
शिक्षा में विशेष रूचि ली। उन्होंने विद्यालय व साहित्य केन्द्रों की
स्थापना की। नवयुवकों के लिए उन्होंने मल्ल-अखाड़ा की प्रथा शुरू की। गुरू
जी के जीवन से हमको यह प्रेरणा मिलती है कि सेवा व सिमरन करने से मनुष्य
बहुत ऊँचा बन जाता है।
गुरू जी के दरबार में जहाँ आत्मा की खुराक के लिये
नाम भक्ति के लंगर चलते थे वहीं शारीरिक खुराक के लिये भी आये गये अतिथियों
के लिये चैबीस घंटे गुरू का लंगर भी चलता था। सरहिंद फतहि दिवस पर व्याख्यान करते हुए ज्ञानी सुखदेव सिंह जी ने कहा कि
पंजाब का सबसे बड़ा शहर है। जिनका पूरे भारत में कोई समानांतर नहीं है
सत्रहवीं शताब्दी के समापन के दशकों में श्री गुरु गोबिंद सिंह जी यहीं थे।
वजीर खान ने आनंदपुर पर हमला करने वाली पहाड़ी सेना को मजबूत करने के लिए
कुछ तोपों के टुकड़ों के साथ कुछ सैनिकों को हटा दिया। 1700 को एक अनिर्णायक
मुठभेड़ हुई थोड़े समय के अंतराल के बाद श्री गुरु गोबिंद सिंह जी आनंदपुर
लौट आए, लेकिन सरहिंद सैनिकों द्वारा लंबे समय तक घेराबंदी के दबाव में इसे
फिर से छोड़ना पड़ा।
फौजदार के आदेशों के तहत, नवाब वजीर खान, श्री गुरु
गोबिंद सिंह जी के दो छोटे बेटों जोरावर सिंह एवं फतहि सिंह जिनकी उम्र नौ
और सात वर्ष थी,को क्रूरता से सरहिंद में एक दीवार में जिंदा चुनवा दिया
गया। 1708 में श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के ज्योतिजोत समा जाने के बाद
बंदा सिंह बहादुर के झंडे के नीचे उन्होंने सरहिंद पर एक भयंकर हमला किया।
मुगल सेना को भगा दिया गया और 12 मई 1710 को लड़ी गई छप्पर चिरी की लड़ाई में
वजीर खान मारा गिराया। सिखों पर सरहिंद का कब्जा हो गया और भाई बाज सिंह
को गवर्नर नियुक्त किया गया। इस स्थान को फतहिगढ़ साहिब के नाम से जाना जाता
है। गुरमति अकेडमी के बच्चों ने शबद कीर्तन के गायन किया।
दीवान
की समाप्ति के पश्चात लखनऊ गुरूद्वारा प्रबन्धक कमेटी के अध्यक्ष स0
राजेन्द्र सिंह बग्गा ने साहिब श्री गुरू अंगद देव जी के प्रकाश पर्व
(जन्मोत्सव) की बधाई देते हुए अपील की कि करोना बीमारी में सरकार द्वारा
दिये गये निर्देशों का पालन करें और घरों में ही वाहिगुरु का सिमरन कर इस
पर्व को मनाएं। गुरुद्वारा भवन के बाहर हरमिन्दर सिंह टीटू, सतपाल सिंह मीत
एवं हरविन्दरपाल सिंह नीटा की देखरेख में दशमेश सेवा सोसाइटी के सदस्यों
ने गुरू का लंगर श्रद्धालुओं में वितरित किया।