जहाँ धन का दुरुपयोग होता है, वहाँ अधर्म का वास होता है


धन का जहाँ दुरुपयोग होता है वहाँ अधर्म का वास हो जाता है चित्त और वित्त की स्थिति लगभग एक जैसी है। चित्त अर्थात मन को काबू में रखना असम्भव सा है, वैसे ही धन को भी मुट्ठी में बंदकर नहीं रखा जा सकता। हमारा मन वहीँ ज्यादा जाता है जहाँ हम इसे रोकना चाहते हैं। इसीलिए ही कहा गया है कि मन के लिए निषेध ही निमंत्रण का काम करता है जहाँ से हटाना चाहोगे यह उसी तरफ भागेगा।

ठीक ऐसे ही धन जब आवश्यकता से अधिक आता है , और उसका उपभोग होने लगता है तो शांति बाहर की ओर भागने लगती है। धन के साथ-साथ स्वयं की शांति और परिवार का सदभाव बना रहे, यह थोड़ा मुश्किल काम है। चित्त और वित्त दोनों चंचल हैं, दोनों जायेंगे ही, इसलिए दोनों को जाने भी दो मगर कहाँ ? जहाँ सत्संग हो साधु सेवा हो, परोपकार हो पर जहाँ भी हो कहीं दुरुपयोग न हो तभी हमारा उद्धार है क्योंकि धन का जहाँ दुरुपयोग होता है वहाँ अधर्म का वास हो जाता है।

Popular posts from this blog

स्वस्थ जीवन मंत्र : चैते गुड़ बैसाखे तेल, जेठ में पंथ आषाढ़ में बेल

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ गौरी रूपेण संस्थिता।  नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

!!कर्षति आकर्षति इति कृष्णः!! कृष्ण को समझना है तो जरूर पढ़ें