ईश्वर की शपथ
“मैं,…. ईश्वर की शपथ लेता हूं, सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा, मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूंगा मैं, …. के रूप में अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंत:करण से निर्वहन करूंगा तथा मैं भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना, सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार कार्य करूंगा।”
“मैं, ….. ईश्वर की शपथ लेता हूं, सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं कि जो विषय पद
के रूप में मेरे विचार के लिए लाया जायेगा अथवा मुझे ज्ञात होगा उसे किसी
व्यक्ति या व्यक्तियों को, तब के सिवाय जबकि ऐसे पद के रूप में अपने
कर्तव्यों के सम्यक निर्वहन के लिए ऐसा करना अपेक्षित हो, मैं प्रत्यक्ष
अथवा अप्रत्यक्ष रूप से संसूचित या प्रकट नहीं करूंगा।” दो
वाक्यों में सिमटे ये चंद शब्द भर नहीं हैं जिन्हें आप कई बार सुन चुके
हैं। ये किसी भी मंत्री पद को जिम्मेदारी से निभाने की शपथ है। असल में ये
सिर्फ मंत्री या किसी खास पद तक सीमित शपथ नहीं। ये किसी भी बहुत
ज़िम्मेदार पद पर आसीन होने की शपथ है। ध्यान दीजिएगा
इन शब्दों पर - “मैं भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना, सभी प्रकार
के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार कार्य करूंगा।”
कल
मैंने लिखा कि मैंने एक व्यक्ति को नौकरी सिर्फ इसलिए नहीं दी, क्योंकि
उसने जातिगत समीकरण बिठाने की कोशिश की। उसे लगा कि एक ही जाति का होने के
कारण मैं उसकी मदद करूंगा। मैं मदद करता या नहीं ये बड़ी बात नहीं। बड़ी
बात थी कि वो नौकरी में आता तो भविष्य में निश्चित रूप से ऐसा करता। यकीनन
अभी वो छोटे पद पर होता, लेकिन समय के साथ ऐसे लोग जब बड़े पद पर पहुंच
जाते हैं तो फिर वो होता है, जो हो रहा है। कल मेरी जातिगत कहानी के नेपथ्य
में था फुल पेज़ का वो विज्ञापन, जिसमें नए कैबिनेट के एक मंत्री की जाति
के लोगों ने फुल पेज का विज्ञापन छपवाया था और प्रधानमंत्री को इस बात के
लिए धन्यवाद दिया था कि उन्होंने जाति विशेष के व्यक्ति को मंत्रिमंडल में
जगह दी।
सोचिए, संजय सिन्हा को ये बात क्यों नागवार गुज़री? एक
व्यक्ति जब शपथ लेता है कि वो पक्षपात, अनुराग का सहारा नहीं लेगा तो फिर
किसी जाति वाले के मन में उसके प्रति विशेष अनुराग क्यों? वो तो सभी के लिए
बराबर है। फिर कोई एक वर्ग खास खुश क्यों? आज संजय
सिन्हा आपको थोड़ा अतीत में ले चलेंगे। आज मैं उन लोगों की सोच पर तरस
खाऊंगा जिन्होंने मुझे इस बात के लिए गाली दी कि एक कायस्थ ने ही कायस्थ को
नौकरी नहीं दी। कई लोगों ने मुझे इस बात के लिए उलाहना दिया कि देखिए संजय
सिन्हा जी, बिहार के एक कायस्थ उद्यमी आरके सिन्हा हैं जो खुल कर कायस्थों
को नौकरी देते हैं। और आप? खैर, जिस बारे में मैं
नहीं जानता उस बारे में क्या कहूं? मैं पत्रकार हूं। चौथे स्तंभ का हिस्सा।
मैं पत्रकारिता को आम नौकरी समझ कर नौकरी करने नहीं आया था। हमारे घर में
सरकारी माहौल था।
पिताजी बिजली बोर्ड में वरिष्ठ सरकारी अफसर थे। मामा
आईपीएस अफसर। मां के निधन के बाद मैं मामा के पास पढ़ाई के लिए गया था।
पढ़ने-लिखने में मेधावी था। मैं भी कहीं लग ही जाता। लेकिन मैंने
पत्रकारिता का चयन किया। यही सोच कर कि मैं अपनी तरह से देश और लोगों की
सेवा करूंगा। सेवा गिनाने का फायदा नहीं, क्योंकि सुना है अपने किए को गिना
देने से किया हुआ नष्ट हो जाता है। इललिए मैंने कितने लोगों को नौकरी दी,
दिलाई इसकी चर्चा नहीं। चर्चा इस बात की थी कि एक व्यक्ति ने जब जातिगत
समीकरण बिठाने की कोशिश की तो उसकी सारी योग्यता मेरे लिए मिट गई।
मेरे
अकेले ऐसा करने से मीडिया का बहुत भला हो गया हो ऐसा गुमान मुझे बिल्कुल
नहीं। लेकिन मुझे गुमान इस बात का है कि मैंने अपने 30 साल के करीयर में
कभी ऐसा कोई काम नहीं किया है जिसमें अनुराग या पक्षपात का सहारा रहा हो।
आज
आप कहते हैं कि अब आप अब टीवी पर खबरें नहीं देखते। जानते हैं क्यों?
उसका कारण वही भय, पक्षपात, अनुराग और द्वेष है जिससे सभी को बचना था। आज
आपके मन में पत्रकारिता के प्रति हिकारत का जो भाव है न, वो उन्हीं
पत्रकारों के कारण है जिन्होंने भय वश, लोभ वश पक्षपात, अनुराग और द्वेष का
सहारा लिया। अब आपकी नज़र में पत्रकार निष्पक्ष नहीं रह गया है। या तो वो
सत्ता पक्ष से है या फिर विपक्ष से। ये बात राजधानी
में बैठे हुक्मरानों के मन में भी है और झुमरी तिलैया में बैठे उन रेडियो
श्रोताओं के मन में भी जो कभी बिनाका गीतमाला और विविध भारती में फरमाइशी
गानों के लिए चिट्ठी पर चिट्ठी भेजते थे। ये सच है कि पत्रकारिता ने अपनी विश्वसनीयत खो दी है। पर क्यों?
क्यों
का जवाब आपको भी पता है। पत्रकारिता समाज का दर्पण है। कुछ पेशे ऐसे होते
हैं जिनमें आपको प्रगतिशील होना ही चाहिए। अगर जातिगत और वैचारिक आधार पर
समाज में बहुत जूनियर लेबल पर भी पत्रकार, वकील, शिक्षक तैयार होते हैं तो
वो आगे जाकर बड़े खतरे के संवाहक बनते हैं। मैंने कई बार ये कहा है कि भारत
में अभी के पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग जेपी आंदोलन और उसके बाद की
परिस्थितियों की कोख से निकला हुआ है। जेपी आंदोलन और सन 77 की मोरारजी
सरकार का समय याद कीजिए। उस समय बहुत आहिस्ता से मीडिया घरानों में बहुत
छोटे पदों पर उन लोगों की नियुक्ति हुई, जो तब तो रोजगार की तलाश में आए
नज़र आ रहे थे। लेकिन आज ध्यान से देखिए तो वो खास विचारों का फल देने वाले
पौधे थे।
समय बीता। जो कभी प्रिंट मीडिया में प्रशिक्षु उपसंपादक बन कर
घुसे थे, वो धीरे-धीरे बड़े हुए और उनमें से कुछ संपादक की कुर्सी तक
पहुंचे। जब वो संपादक बने तो फिर उनके पास अपने विचारों का जंगल लहलहा देने
का पूरा मौका था, जिनके विचारों को पालने के लिए वो जूनियर पद पर तब
नियुक्त हुए थे। बीज बहुत पहले लगे थे। फसल बाद में
नज़र आई। उसी फसल की डंडी की लेखनी अब आपको विचलित करती है। और आप कहते हैं
कि ये पत्रकार नहीं, पत्तलकार हैं। संजय सिन्हा मानते हैं कि पत्रकारिता
आज भी नौकरी नहीं है। भले इसे आज कुछ लोग करीयर और किसी आम नौकरी की तरह
देखते हों, पर ऐसा होना नहीं था। शुरू में पत्रकारिता में वही लोग आए थे,
जिनके पास अपनी सोच थी। मन में समाज सेवा का भाव था।
सरकार की आंख में आंख
डाल कर सवाल पूछने का साहस था। भारत में पत्रकारिता का मूल अध्याय ही तीन
बिंदुओं पर टिका था- लोगों तक सूचना पहुंचाना, जनसरोकार से आवाम को जोड़ना
और सरकार से बिना डरे सवाल पूछना। पर सिस्टम ने बहुत
पहले समझ लिया कि पत्रकार को सेट करने से अपने पक्ष में खबर लिखवाई, दिखाई
जा सकती है, धंधे के लिए किए जाने वाले कार्य को जनसरोकार बताया जा सकता
है और चांदी के जूते के बल पर सवाल दागने की जगह प्रवक्ता बनने को प्रेरित
किया जा सकता है। तमाम सरकारी विभागों में जनसंपर्क विभाग बने ही पत्रकारों से रिश्ते कायम करने के लिए। अपनी पसंद की बात आवाम तक पहुंचाने के लिए। आवाम कौन? वोटर। वैसे
तो सेटिंग वाली पत्रकारिता बहुत सालों से चल रही थी, पर जैसा कि संजय
सिन्हा ने कहा कि इसकी खेती लहलहाई जेपी आंदोलन के बाद। जेपी आंदोलन के
चक्कर में बिहार के छात्रों का एक बड़ा वर्ग पढ़ाई में फिसड्डी रह गया।
जब
सरकार बदली तो उन फिसड्डी विद्यार्थियों के लिए कहीं सरकारी नौकरी में जगह
नहीं थी। सरकारी नौकरी की बहुतों की उम्र निकल चुकी थी। बहुतों के पास
मुकम्मल डिग्री भी नहीं थी। तो उस दौर में नेताओं ने अखबार मालिकों के यहां
अपने लोग खूब सेट किए। मालिकों को लगा कि हज़ार-पांच सौ रुपयों वाली नौकरी
में क्या रखा है? मालिकों ने नेताओं का दिल रखा। इसके बदले उन्हें फायदा
भी हुआ होगा। पर भविष्य में यहीं से खबरों के लिए विश्वसनीयता का भी संकट
पैदा हुआ। एक आदमी रखा तो गया उपसंपादक लेकिन बीस साल में वो बन गया
संपादक। अब वो जिसकी सिफारिश पर नौकरी में आया था उसके लिए तो वो काम करेगा
ही। जब वो इस योग्य हुआ कि वो दूसरों को नौकरी दे सकता है तो उसने जाति,
विचारधारा को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया। नतीज़ा? वही जिसका डर था। आपने खबरों पर भरोसा करना छोड़ दिया।
जब
मैं नौकरी देने के योग्य हुआ और कोई मुझसे इस आधार पर नौकरी मांगता कि
संजय सर, मैं कायस्थ हूं या फिर मैं फलां विचारधारा का समर्थक हूं तो उसे
मेरे हाथों नौकरी नहीं ही मिलनी थी। मेरे लिए पत्रकारिता मज़ाक का विषय
नहीं। चिंता का विषय है। मैं जानता हूं कि इस देश में जब आपकी कहीं सुनवाई
नहीं होती, तब ये तथाकथित मीडिया ही भरोसे का आखिरी द्वार नज़र आता है।
इसकी गरिमा घटी है। पर आज भी उम्मीद की एक किरण कहीं है तो यहीं है। इसलिए
कोई आपसे अगर कहे कि फलां विचारधारी, जातिधारी को नौकरी क्यों नहीं मिली तो
चिंता मत कीजिए। सच स्वीकार करने वाले को मत कोसिए। उन्हें कोसिए
जिन्होंने ऐसा किया है, जो ऐसा करते हैं। जिन्होंने खास विचारधारियों को
मीडिया की कमान सौंप दी है। चिंता के विषय वो हैं, संजय सिन्हा नहीं।
हमें
कोई फर्क नहीं पड़ता ये सुन कर हम दल्ला हैं, पत्तलकार हैं। पर आपको फर्क
पड़ना चाहिए क्योंकि जब ज़रूरत होगी तो हमीं में से कोई आपकी सुन सकता है,
और लड़ सकता है। आप मीडिया पर सवाल उठाइए। लोगों को कोसिए। पर उन्हें,
जिन्होंने किसी एक को भी इस आधार पर नौकरी दी है कि फलां कायस्थ है,
ब्राह्मण है, राजपूत है, भूमिहार है। उन्हें भी कोसिए जो किसी के प्रवक्ता
हैं। लिस्ट उठा कर देखिए लंबी लिस्ट मिलेगी। संजय सिन्हा को कहां कोसने बैठ
गए हैं? वो इन सबसे बचपन से दूर हैं। उन्होंने अपने पिता को देखा है, मामा
को देखा है। वो सही और गलत का अंतर बचपन से समझते हैं। आप लाख कोस लीजिए,
पर घनघोर से घनघोर दुश्मन भी उन पर पत्तलकार, दल्ला का दाग नहीं लगा
पाएगा।
आदमी जो होता है, वही होता है। मेरा विऱोध
अभी तो किसी मंत्री के जातिगत समीकरण को लेकर है। संविधान विरोधी विज्ञापन
को लेकर है। आप विषय से भ्रमित न हों। सच यही है कि मंत्री सभी के लिए होते
हैं। किसी जाति वाले ने विज्ञापन छपवाया इस पर तो विज्ञापन दाताओँ के
खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए, बजाए ताली बजाने के। अपनी नहीं तो ईश्वर की शपथ की तो रक्षा करनी ही चाहिए।
संजय सिन्हा (वरिष्ठ पत्रकार)