सम्मान व्यक्ति का नहीं होता, बल्कि उसमें विद्यमान गुणों का होता है
जिसमें कुछ गुण होते हैं, उस व्यक्ति का संसार में सम्मान
होता है। वास्तव में वह सम्मान उस व्यक्ति का नहीं होता, बल्कि उस व्यक्ति
में विद्यमान गुणों का होता है। लोग भ्रांति से उसे उस व्यक्ति का सम्मान
मान लेते हैं।" लोक
व्यवहार में ऐसा देखा जाता है, कि सम्मान मिलने से व्यक्ति सुख का अनुभव
करता है। अपमान होने पर वह दु:ख का अनुभव करता है।
"प्रत्येक व्यक्ति सुख
को चाहता है, और दु:ख को कोई भी व्यक्ति नहीं चाहता।" जब सुख चाहता है, तो
उसका उपाय ढूंढता है। सुख का उपाय है, उत्तम गुण, धन, सम्पत्ति सम्मान आदि।
"व्यक्ति सोचता है, मुझे सुख चाहिए। इसके लिए आवश्यक है, कि मुझे धन मिले,
मेरा सम्मान हो, आदि।" अब वास्तविकता तो यह है, कि "सम्मान होता है, गुणों का।" व्यक्ति
तो सब एक जैसे हैं, सबका शरीर एक जैसा है, पंचमहाभूतों से बना हुआ है। पर
सब का सम्मान नहीं होता। जिस व्यक्ति का भी सम्मान होता है। वह उसमें
विद्यमान कुछ गुणों के कारण से होता है। "यदि आप भी सम्मान और सुख चाहते
हों, तो आपको भी अपने अंदर गुणों की स्थापना एवं उनका विकास करना होगा। तब
तो वे गुण आपको सम्मानित करवा देंगे।"
"यदि
आप सुख एवं सम्मान चाहते हैं और अपने अंदर गुणों का विकास नहीं करते,
बल्कि अपनी मूर्खता अविद्या स्वार्थ आदि दोषों के कारण दूसरे गुणवान
व्यक्ति का अपमान करने का प्रयत्न करते हैं, और यह सोचते हैं कि "समाज में
इस व्यक्ति का सम्मान, मेरे सम्मान से अधिक है। यदि मैं इसका अपमान कर दूं,
तो इससे इसका सम्मान कम हो जाएगा और मेरा सम्मान बढ़ जाएगा। तो ऐसा सोचना
आपकी बहुत भयंकर भूल है।" संसार
में ऐसे बहुत लोग हैं, जो इस प्रकार की भयंकर भूल करते हैं। लंबे समय तक
अथवा कहीं-कहीं जीवन भर भी लोग यह भूल करते रहते हैं। फिर भी वे इस सत्य को
नहीं समझ पाते, कि "दूसरे का अपमान करने से मेरा सम्मान नहीं बढ़ेगा।"
कुछ
बुद्धिमान लोग होते हैं, जो दो चार बार ऐसा प्रयोग करके समझ जाते हैं, कि
"दूसरे व्यक्ति का अपमान करने से मेरा सम्मान नहीं बढ़ेगा। बल्कि मुझे मेरा
सम्मान बढ़ाने के लिए अपने अंदर गुणों का विकास करना होगा। तभी लोग मेरा
सम्मान करेंगे। और अपने अंदर गुणों का विकास करने के लिए लंबे समय तक मुझे
ईमानदारी से तपस्या करनी पड़ेगी। किसी दूसरे व्यक्ति का भी जो आज सम्मान हो
रहा है, उसने बहुत लंबे समय तक ईमानदारी से तपस्या की है, इसलिए उसके अंदर
गुणों का विकास हुआ है, जिस कारण से लोग आज उसका सम्मान कर रहे हैं।" ऐसा
ठीक ठीक समझने वाले सत्यग्राही लोग बहुत कम होते हैं। जो लोग ऐसे बुद्धिमान
होते हैं, वे इस प्रकार की मूर्खताएँ नहीं करते। बल्कि सही विधि को अपनाते
हैं। "सही विधि तो यही है, कि "लंबे समय तक ईमानदारी और बुद्धिमत्ता से
तपस्या करके अपने अंदर उत्तम गुणों की स्थापना एवं उनका विकास किया जाए। तब
आप देखेंगे कि लोग स्वयं ही आप का सम्मान करेंगे।"